: १२ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
के प्रशस्त के अप्रशस्त कोई रागवृत्तिनुं उत्थान ज थतुं नथी. तेओ तो परम–
वीतरागभावे पोताना ज्ञायकस्वरूपने ज ध्यावे छे.
भगवान आत्मा तो त्रणेकाळ कर्मकलंकथी रहित छे, अने तेना तरफ वळीने तेने
ध्यावनारी पर्याय पण कर्मकलंकथी रहित छे. शुभविकल्पनो विषय आत्मा नथी, आत्मा
तो रागरहित वीतरागी चेतनानो ज विषय छे. राग तो आस्रवतत्त्व छे ते कांई
जीवतत्त्व नथी; अंर्तसन्मुख थयेली चेतना पण रागदि आस्रवथी रहित थईने संवर–
रसनो स्वाद क्यांथी आवे? चैतन्यनो रस जेने जागे तेने संसारमां बीजा कोईनो रस
रहे नहीं. चैतन्य तरफ जे भाव वळ्यो ते भाव रागथी छूटो पड्यो, एटले ते पर्याय
आस्रवरहित थई. आवी अंतर्मुख पर्याय ते ज समाधि छे, कोई परभावनी उपाधि
तेमां नथी. जीवन जीवतां ज धर्मात्माने आत्मानी आवी समाधि अनुभवाय छे.
सर्वज्ञदेवनो मार्ग अपूर्व अलौकिक छे; ते मार्गने सेवतां आत्मानी परम
वीतरागी शांति थाय छे. जेमां शांति न मळे ते वीतरागनो मार्ग नहीं. वीतरागनो
मार्ग तो वीतरागभाववडे परम अतीन्द्रिय शांति देनार छे. अरे जीव! वीतरागनो
आवो मार्ग तने मळ्यो, तो हवे बीजी उपाधि छोडीने वीतरागभाववडे तारा
परमात्मतत्त्वने चिंतव, तेमां तने परम शांति परम आनंद ने परम समाधि थशे.
अतीन्द्रिय आनंदरसथी छलोछल छलकातो सागर तारो आत्मा, तेना
आनंदरसनो रसियो थईने तेने ज अंतरमां वीतरागभावरूप ध्याननो विषय बनाव.
एना सिवाय बीजा कोईना आश्रये शांतिनुं वेदन नथी. सम्यग्दर्शन करवा माटे पण
पहेलां तारा शुद्धआत्माने ज ध्येय बनावीने लक्षमां ले. सम्यग्दर्शनमां पण कोई अपूर्व
समाधि छे. सम्यग्दर्शन पण पुण्य अने पाप बंनेथी पार छे, ने आत्माना आश्रये ज
तेनी उत्पत्ति छे.
अरे, आवो अलौकिक वीतरागमार्ग, आत्माना पोताना स्वभावनो मार्ग! तेने
हे जीव! तुं स्वानुभवगम्य कर. ते स्वानुभवथी ज गम्य छे. स्वानुभव सिवाय बीजा
कोई मार्गे आत्मानो स्वभाव हाथमां आवे नहि, ने स्वघरमां वास थाय नहीं.
स्वभावना स्वघरमां प्रवेशीने पर्याय तेमां वसे ते ज अपूर्व आनंदमय वास्तु छे. जे
वीतरागभावथी आत्मामां वसाय तेने भगवान वास्तु कहे छे.