: आसो : २४९७ आत्मधर्म : १३ :
चारित्रमां वरसे छे–आनंदनी धारा
[नियमसार–टीका–श्लोक १८६–१८७–१८८ भाद्र. वद ८]
* मारो मार्ग ने वीतरागपरमात्मानो मार्ग जराय जुदा नथी *
आत्मा ज्ञानमूर्ति छे, तेनी सन्मुख थईने तेनुं राग वगरनुं जे अतीन्द्रियवेदन
थवुं ते आनंद छे, ते धर्म छे; तेमां आत्मानी उपलब्धि छे.
कर्मरहित ने अनंत आनंदसहित जे ज्ञानमूर्ति आत्मा, तेनी अनुभूतिमां आनंदनी
लहरी ऊठे छे. आत्मअनुभूतिमां तो शांतरसनी तीव्र जळधारा सतत वरसे छे, ने भवनो
दावानळ ठरी जाय छे. आवी दशावाळा जीवने संयम अने चारित्र होय छे.
शुभविकल्पो ते कांई चारित्र के ज्ञान नथी, तेमां कांई आनंदनी धारा नथी, ने
ते कांई वीतरागमार्ग नथी; अंतरमां आत्मानी उपलब्धिथी थतुं जे ज्ञान अने चारित्र,
तेमां आनंदनी धारा उल्लसे छे, ते ज वीतरागमार्ग छे. बापु! तारो मार्ग ने वीतराग–
मार्ग जराय जुदा नथी. जुदापणुं भासे तो मार्ग साचो नथी.
रागनी वात जुदी छे, ज्ञाननी जात जुदी छे; बंनेनी जुदाईने अनुभवीने ज्ञानमां जे
एकाग्रता थई ते चारित्र छे, तेमां आनंदनी धारा वरसे छे, ते वीतरागनो साक्षात् मार्ग छे.
रागमां तो भवनो दावानळ छे; ते अशुभ हो के शुभ, तेमां चैतन्यनी शांति
जराय नथी. ते दावानळ ज्ञानवडे ज बुझाय छे. अंतरमां आखो शांतरसनो समुद्र आत्मा,
तेने सम्यग्ज्ञानवडे प्राप्त करीने अनुभवमां लेतां शांतरसनी जोरदार धारा वरसीने भवना
दावानळने बुझावी नाखे छे. स्वानुभूतिमां धर्मीने कोई अलौकिक शांति छे.
चैतन्यसूर्यमांथी जे ज्ञाननां किरण फूट्यां ते अज्ञानअंधकारने दूर करे छे; त्यां
स्वभावसन्मुख एकाग्रताथी झडपथी शांतरसनी धारा ऊछळे छे. परिणति परभावोथी
छूटीने एवी झडपथी अंतरमां वळी के शांतरसनो धोधमार वरसाद वरस्यो, ने
अनादिना परभावनी आकुळताने धोई नांखी. –आवी ज्ञानीनी दशा छे. अने आवा
ज्ञानीने आत्माना चारित्रमां आनंदनी धारा वरसे छे. ज्ञानीना चारित्रनी अद्भुत
आनंदधाराने अज्ञानीओ