Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९७ आत्मधर्म : १५ :
‘हुं अनुभवुं छुं मारा चैतन्यसुखने’
[सोनगढमां कहानसोसायटीमां दहेगामवाळा भाईश्री हीरालाल भीखाभाईना
मकान “सुश्रुत”ना वास्तुप्रसंगे मंगल प्रवचनमांथी :
नियमसार कळश १९९ आसो सुद बीज]
अहा, आ चैतन्यसंपदा पासे जगतनी कोई संपदानी
किंमत नथी. जेणे अंतरनी अनुभूतिवडे आवी चैतन्य–
संपदावाळो आत्मा प्राप्त कर्यो ते ज साचो लक्ष्मीवान छे;
बाकी बहारना संयोगथी मोटाई लेवा मांगे ते तो बधा दरीद्र
छे. भगवान! तुं गरीब नथी, दीन नथी, तुं तो चैतन्य
संपदाथी भरेलो भगवान छो... सुखनी संपदा तो तारामां ज
भरी छे. ज्ञानने अंतरमां वाळीने तारा स्वरूपनी समाधिवडे
तेने जाण... तारो आनंदमय आत्मवैभव, त्रणलोकमां सौथी
श्रेष्ठ, ते तारी ज समाधिनो विषय छे–एटले तारा अंतर्मुख
उपयोगमां ज ते प्राप्त थाय छे; ए सिवाय बीजा कोई
उपायथी तेनी प्राप्ति थती नथी. माटे अंतरना उपयोगवडे
सुखसंपदाथी भरपूर तारा ‘चैतन्यधाम’मां आनंदथी वस!
हवे तारा आनंदधाममां वास्तु कर!
अनंत चैतन्यशक्तिथी भरपूर पोतानी प्रभुताने भूलीने जीव संसारनी चार
गतिमां ज्यां ज्यां गयो त्यां त्यां शुभाशुभरागना फळरूप दुःखने ज अनुभव्युं छे.
अरेरे, आत्मा तो चैतन्यस्वरूप विशुद्ध सुखधाम छे; तेने भूलीने अत्यार सुधी में
झेरीवृक्षनां फळ जेवा दुःखने अनुभव्युं; पण हवे हुं ते भूलने छोडुं छुं ने मारा शुद्ध
चैतन्यसुखने अनुभवुं छुं. मारी अनुभूतिमां भवनां दुःखनो अभाव छे. चैतन्य–
स्वभावना अमृतने चूकीने चारेगति तरफनो भाव ते विषवृक्ष छे, तेनुं फळ दुःख दुःख
ने दुःख ज छे,–भले स्वर्गमां हो, त्यां पण जीव अज्ञानभावथी दुःखी ज छे, पण ज्यां
चैतन्यशक्तिनुं भान थयुं, पोते पोतानी प्रभुता देखी, त्यां पोताना आत्मामांथी