Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९७ आत्मधर्म : १७ :
आनंदनो वेदन सहित आत्मानुं ज्ञान प्रगटे छे. आनंद वगरनुं ज्ञान ते साचुं ज्ञान नथी.
भाई, तारे सुखी थवुं छे ने? सुखनी उत्पत्ति तो तारा आत्मामांथी थाय छे,
माटे उपयोगने आत्मामां जोड, चैतन्यसरोवर परम आनंदथी भरेलुं छे;
सिद्धभगवंतोए जे आनंद प्रगट कर्यो ते आनंद चैतन्यसरोवरमां भरेलो छे; ते
चैतन्यसरोवरथी बहार दोड्ये तने क्यांय साची शांतिनां जळ नहीं मळे. साची शांति
माटे अंदर तारा चैतन्यसरोवरमां जा.
चैतन्यसुखने अनुभवतां ज ज्ञानीने एम थाय छे के अहो! मारो आवो
अचिंत्य परम आनंद मारामां ज होवा छतां अत्यार सुधी मारा सुखने भूलीने हुं दुःखी
थयो हतो. अहो! हवे तो चैतन्यभगवान निजात्मगुणोना वैभव सहित मारा अंतरमां
स्फूरायमान थया छे... सम्यग्दर्शननी मारी अनुभूतिमां मारी आत्मसंपदा प्रगट थई
छे; मारी संपदा में मारामां देखी छे; तेना परम आनंदने अनुभवतो हुं हवे विभावनां
झेरीफळने भोगवतो नथी. तेने माराथी भिन्न जाणुं छुं.
अहो, आवी चैतन्यसंपदा! ते धर्मात्मानी अनुभूतिनो ज विषय छे; रागनो
विषय ते नथी; रागथी पार एवी जे निर्विकल्प समाधि, तेमां पोतानी चैतन्यसंपदाने
ध्येय बनावतां सम्यग्दर्शन अने परम आनंद प्रगट थाय छे. पूर्वे एक क्षण पण आवी
चैतन्यसंपदाने में जाणी न हती; पण हवे ते चैतन्यसंपदा मारी निर्विकल्प समाधिमां
प्रगट थई छे, साक्षात् अनुभवमां आवी गई छे.
अहा, आ चैतन्यसंपदा पासे जगतनी कोई संपदानी किंमत नथी. जेणे
अंतरनी अनुभूतिवडे आवी चैतन्यसंपदावाळो आत्मा प्राप्त कर्यो ते ज साचो
लक्ष्मीवान छे; बाकी बहारना संयोगथी मोटाई लेवा मांगे ते तो बधा दरीद्र छे.
भगवान्! तुं गरीब नथी, दीन नथी, तुं तो चैतन्यसंपदाथी भरेलो भगवान छो...
सुखनी संपदा तो तारामां ज भरी छे. ज्ञानने अंतरमां वाळीने तारा स्वरूपनी
समाधिवडे तेने जाण... तारो आनंदमय आत्मवैभव, त्रणलोकमां सौथी श्रेष्ठ, ते तारी
ज समाधिनो विषय छे. –एटले तारा अंतर्मुख उपयोगमां ज ते प्राप्त थाय छे; ए
सिवाय बीजा कोई उपायथी तेनी प्राप्ति थती नथी. माटे अंतरना उपयोगवडे
सुखसंपदाथी भरपूर तारा ‘चैतन्यधाम’मां आनंदथी वस! हवे तारा आनंदधाममां
वास्तु कर!