Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
जगी उरमांहि समकित–कला सोहनी
[श्रीगुरु साधक थवा माटे वैराग्यरसभीनी प्रेरणा आपे छे[
[समयसार–नाटक पानुं ३३७–३३८–३३९ भाद्र. वद ११–१२]
चौद गुणस्थानमां चोथा गुणस्थानेथी मोक्षनुं आरोहण शरू थाय छे. ने ते जीव
मोक्षनो साधक थाय छे. चोथा गुणस्थाने धर्मीजीवना अंतरमां अत्यंत शोभित एवी
सम्यक्त्वकळा जागी छे. अहा, अनंतशक्तिवाळा चैतन्यसूर्य आत्मामांथी सम्यक्त्वनां
किरण फूट्या.
मुमुक्षु–भव्यजीवना उज्वळ मनरूपी जे छीप, तेमां श्रीगुरुना वचनरूपी
स्वातिबिंदु पडतां सम्यक्त्वरूपी मोती पाके छे. अहा, सम्यग्दर्शन थतां अनंतगुणमांथी
आनंदनां किरण फूट्या, आत्मामां साचा ज्ञानमोती पाक््यां. श्रीगुरुना सत्यउपदेशना
ऊंडा मननथी अंतरमां त्रण करणसहित सम्यग्दर्शन किरण जागे छे.
जेना अंतरमां सम्यग्दर्शनरूप किरण जाग्युं ते निःशंक अनुभवे छे के मारी मुक्ति
हवे अत्यंत नजीक छे. एवो जीव श्रीगुरुनां वचन झीलीने अंतरना स्वानुभवमां
सम्यक्त्वनां साचां मोती पकावे छे. जेम अमुक माछलीनी ताकात छे के तेना पेटमां
मोती पाके, ने त्यां स्वातिबिंदुंनुं ज निमित्त होय. तेम धर्मीजीव सम्यक्त्वनां मोती
पकाववा तैयार थयो, त्यां श्रीगुरुनां चैतन्यस्पर्शी वचनरूपी स्वातिबिंदु निमित्तरूप
होय छे, तेने झीलीने, अंर्तमुख परिणतिवडे ते जीव पोताना अंर्तमां सम्यग्दर्शननुं
मोती पकावे छे.
अहो, सम्यक्त्वनी कळा कोई अलौकिक अचिंत्य छे. श्रीगुरुनी वीतरागीवाणी
आवी सम्यक्त्वकळा बतावीने जगतना जीवोने हितमार्ग देखाडे छे. श्रीगुरुनां वचन
तो आवा छे, ने तेने झीलनारो भव्यजीव पण साचा मोतीनी छीप जेवो छे; ते
वाणीद्वारा शुद्धात्मानुं स्वरूप झीलीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे.
आवुं सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे श्रीगुरु जीवने जगाडे छे के अरे चेतनजी!
तमे हवे जागी जाओ! आ संसारनी धनसंपत्तिनी मायामां केम लागी रह्या छो? ने
निज चैतन्यसंपत्तिने केम भूली रह्या छो? ते माया छोडो! ने निज–