: आसो : २४९७ आत्मधर्म : १९ :
संपत्तिने संभाळो. चैतन्यनी संपदानो अनुभव करीने साधकभाव प्रगट करो.
आत्महितमां मस्त थाओ; रागथी अलग तमे तो चैतन्य छो. माटे परनो संबंध छोडी,
राग–द्वेषना बंधन तोडीने, ज्ञानस्वरूप तमारा आत्माने आनंदथी साधो. आत्मबळ
जागृत करीने मोहने तोडो ने सम्यक्त्वकिरण प्रगट करीने सुखी थाओ.
वाह, जुओ तो खरा, आत्महित माटे श्रीगुरुनो वीतरागी उपदेश! तारे ज्ञान–
आनंदथी भरेला चैतन्यभंडारनो अनुभव करवो होय तो धनदोलत, देह अने राग
बधायनी रुचि तोडीने अंतरमां आत्मा पासे आव. आखा जगतनो रस छोडीने
चैतन्यनो रस एवो प्रगटाव के तेमां उपयोगनी एकाग्रता थाय. आवो आत्मप्रेम
प्रगटावीश त्यारे साधकदशा शरू थशे, त्यारे चैतन्यसंपत्तिनुं साचुं सुख प्रगटशे.
एककोर भगवान आतमराम, बीजी कोर संकल्पविकल्पथी मांडीने आखुंय
जगत; तेमांथी एक चीज पसंद करी ले. तारे आतमराम जोईतो होय तो एना सिवाय
जगतनी बीजी कोई चीजनो प्रेम नहीं पालवे; ने जो जगतनी कोई चीजमां सुख
मानीने तेनी प्रीति करीश तो तारो आतमराम तने अनुभवमां नहीं आवे. लक्ष्मी अने
रागादिभावोनी जात ज ताराथी जुदी छे, तेमांथी तने सुख कदी मळवानुं नथी. आ
लोकना कुटुंबी संसारी जीवो तो पोताना स्वार्थना सगां छे, तेनो नेह तोडीने तुं तारा
अध्यात्मिक परमार्थरसमां मस्त था ने तारा आत्महितने साध. तारे साधक थवुं होय तो
आत्मानुं बळ प्रगट करीने जगतनो संबंध छोड ने तारा चैतन्यस्वरूपमां उपयोगने जोड.
आ रीते श्रीगुरुनो परम वैराग्यरसभीनो उपदेश झीलीने, मुमुक्षु भव्यजीव
आत्मसन्मुख थई अपूर्व सम्यक्त्वकळा प्रगट करीने साधक थाय छे.
धन्य श्रीगुरु! धन्य साधक!
अहा, हुं मुमुक्षु थईने मारा चैतन्यना परमार्थरसमां मस्त थयो, त्यां जगतना
लोको साथे मारे कांई ज नातो नथी. मारी रुचि मारा आत्मामां वळी गई छे त्यां हवे
कोई परचीजनो प्रेम मने रह्यो नथी. जगतथी अलिप्त मारा चैतन्यरसमां ज मारो
आत्मा सावधान छे. जगतना लोकने रीझववानी, के जगतना लोकथी रीझवानी बुद्धि
छोडीने, निर्भयपणे मारा चैतन्यस्वरूपने हुं उग्र प्रयत्नथी साधुं छुं. मारो आत्मा पोते
रीझीने आनंदरूप केम थाय? ते ज मारुं प्रयोजन छे.