: २० : आत्मधर्म : आसो : २४९७
अहा, चैतन्यवस्तु अनंतअनंत ज्ञान–आनंदना निधानथी भरपूर छे; ते पोते
पोताने देखतां ज पर्यायमां मुक्तिनुं सुख अनुभवाय छे. चैतन्यना कोई अलौकिक
चमत्कारने ज्ञानी अनुभवे छे. आवो आत्मअनुभव भवभवना परितापथी रहित छे.
आवा चैतन्यअनुभववडे संतोए अंतरमां सिद्धनी साथे दोस्ती करी छे.
अहो, अंतरमां जोतां ज मारा आत्मामां निजआत्मगुणोनी अचिंत्य संपदा
स्फूरायमान थई छे. आवी चैतन्यसंपदा ज्यां स्फूरी त्यां संसारसंबंधी कल्पितसुखोनी
तूच्छवृत्ति छूटी जाय छे. चैतन्यनुं जे सुख छे ते ज परम सत्य सुख छे, एनी पासे
स्वर्गादिनां कल्पित सुखो तो साव तूच्छ छे; खरेखर ते सुख नथी; चैतन्यसुखनो स्वाद
आवतां ज समस्त संसारना ईन्द्रियविषयोमां के शुभाशुभरागमां सुखनी मिथ्याकल्पना
छूटी जाय छे. आत्मानी कोई अगाध शक्ति छे के जेना वेदनमां संसारना कोई परभाव
रही शकता नथी, एकली स्वाभाविक आनंदसंपदाने ज धर्मीजीव पोताना अंतरमां
अनुभवे छे.
स्वानुभवी धर्मात्मा निःशंक जाणे छे के मारी चैतन्यसंपदा मारा हृदयमां
स्फूरायमान थई छे,–मने प्रगट अनुभवमां आवी छे. अरे, पूर्वे मारी आवी
चैतन्यसंपदाने में क्षणमात्र जाणी न हती.–पण हवे मारा हृदयमां में मारी
चैतन्यसंपदाने जाणी लीधी, एटले पूर्वे न जाणी तेनुं प्रायश्चित थई गयुं. हवे तो
चैतन्यनी अनुभूतिमां परमसमाधि थई छे, विष जेवा दुःखमय विभावोथी पार एवा
चैतन्यस्वरूप आत्माना विशुद्ध सुखने हुं अनुभवुं छुं. आवा अनुभवनुं नाम मोक्षमार्ग
छे. आवुं सुख स्वानुभववडे धर्मीने पोतामांथी ज स्फूरे छे. ए कोई रागनो विकल्पनो
विषय नथी; पोतानी ज चेतनापर्याय निर्विकल्प समाधिरूप थईने पोताना आवा
आत्माने ध्येय बनावे छे ने त्यां चैतन्यना आनंदरसना परम अमृतनी धारा वरसे छे.
–तैयार था
रे जीव! भवनी मूर्ति एवा शरीरने
आत्मभावनापूर्वक छोड तो भवनो अभाव थवानुं तने नक्की
थई जशे. अनंता जीवो शरीर छोडीने सिद्धपदने पाम्या छे....
एवा सिद्धपदने साधवा माटे हवे तुं तैयार था...तैयार था.