Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९७ आत्मधर्म : २१ :
भगवानने भेटवानी रीत
स्वद्रव्याश्रित भावमां बधा धर्मो समाय छे
[नियमसार गा. ११९ भाद्र. वद १०]
पोताना आत्मस्वरूपने अवलंबनारा अंतर्मुख भाववडे सर्वे परभावनो त्याग
थई जाय छे तेथी ध्यान ते सर्वस्व छे, शुद्धआत्माना अंर्तध्यानमां बधा निश्चयधर्मो
समाई जाय छे. आवा ध्यान माटे पहेलां आत्मानुं स्वरूप केवुं छे ते बराबर निर्णयमां
लेवुं जोईए.
जे पर्याय अंतरमां परमस्वभावनी सन्मुख थई ते पर्याय पण सर्वे विभावथी
छूटी पडी गई, आवी पर्याय ते पण आत्मानो ज स्वभाव छे, ते धर्म छे. ते
धर्मपर्यायमां कोई बीजानुं आलंबन नथी, ते पोताना परम शुद्धस्वरूपने ज अवलंबे
छे. माटे तुं बीजा बधायने ओळंगीने तारा ज्ञानस्वरूप आत्मामां द्रष्टि कर, तेने
अनुभवमां ले, तेने ध्येय बनावीने ध्याव. आवुं शुद्धात्मध्यान तेमां मोक्षमार्ग समाय
छे, तेथी ते ध्यान सर्वस्व छे. सामयिक कहो, चारित्र कहो, सम्यग्दर्शन–ज्ञान कहो,
वीतरागता कहो, परम आनंद कहो, प्रायश्चित कहो–ए बधुंय ते ध्यानमां समाय छे.
समस्त ५रभावोथी पार, पर्यायना भेदोथी पार, पोताना परमप्रसिद्ध आत्म–
स्वरूपने एक सेकंडमां पकडीने अनुभव करवा आत्मा समर्थ छे. पोतानो आत्मा अंदर
विद्यमान छे, तेनी सन्मुख थईने निकटभव्यजीवो तेने ध्यावे छे. आवी ध्यानदशावडे
पोताना शुद्धस्वद्रव्यने अवलंबनारो जीव समस्त शुभाशुभरागादि परभावोने ते क्षणे
ज छोडे छे. अंतरना स्वभावमां जे पर्याय गई ते पर्यायमां रागदि बाह्यभावो रहेता
ज नथी, तेथी ते पर्यायमां बधा धर्मो आवी जाय छे, रागादि कोई उदयभावो तेमां नथी
आवता.
अहो, आ धर्मनी रीत तो जुओ! आत्मामां ज एवी ताकात छे के पोते पोतामां
एकाग्र थईने आनंदभावरूप परिणमे; ने परभावोने पोतामां आववा न द्ये. जेणे
पोताना