: आसो : २४९७ आत्मधर्म : १ :
वार्षिक वीर सं. २४९७
लवाजम आसो
चार रूपिया
OCTO 1971
* वर्ष : २८ : अंक १२ *
पोताना परम तत्त्वनी प्राप्ति वडे थतो
साचो संतोष
स्वानुभूतिमां ज्यां पोताना परम तत्त्वनी ५्राप्ति थई त्यां पोताना परम
आनंदमय निधानने पोतामां ज देखीने जीवने परम संतुष्ट भाव थाय छे, पछी त्यां
बीजी कोई वस्तुनी प्राप्तिनो लोभ रहेतो नथी. परम चैतन्यतत्त्व, जगतनी सवोत्कृष्ट
वस्तु तो पोतामां ज प्राप्त थई गई पछी बीजी वस्तुओ लोभ केम रहे? अहा! मारुं
परमतत्त्व, मारो परम चैतन्यवैभव मारामां ज अनुभवीने हुं परम तृप्त छुं, संतुष्ट छुं.
–आम धर्मीजीव स्वानुभवना संतोष द्वारा लोभने जीते छे; क्रोध–मान–माया के लोभना
प्राप्तिथी तृप्त थयेला ते जीवने जगतना बीजा कोई पदार्थने मेळववानी अभिलाषा
नथी. आ रीते परमतत्त्वनी प्राप्तिरूप संतोष द्वारा लोभने जीताय छे.
अनुभूतिनो संतोष नथी तेने परद्रव्यनो–रागनो लोभ छे, क्यांक परमांथी सुख लउं
एवी तृष्णा तेने वर्ते ज छे. सुखथी भरेला पोताना स्वतत्त्वने देखे तो ज तेनी तृष्णा
मटे ने पोताना अनुभवथी ज तेनी परिणति तृप्त–तृप्त संतुष्ट थाय. माटे आचार्यप्रभु
कहे छे के हे भव्य!
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