: २ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
* सर्व अपराधना अभावरूप शुद्ध प्रायश्चित्त *
श् [स्वात्माना चिंतन वडे ज्ञाननी विशेष उज्वळता ते ज प्रायश्चित छे]
नियमसार निश्चय–प्रायश्चित्त अधिकार : भादरवा वद त्रीज तथा चोथ
शुद्धआत्मानी भावना वडे प्रायश्चित्त थाय छे. शुद्धआत्मानी सन्मुख थईने तेने
भावतां पुण्य–पापरूप कलुषतानो छेद थाय छे ने ज्ञाननी विशुद्धिरूप ऊज्वळता प्रगटे
छे, तेथी शुद्धात्मानी भावना ते ज उत्तम प्रायश्चित्त छे.
जे भावथी आत्माने दुःख थयुं, अशुद्धता थई, अपराध थयो ते मलिन भाव
जेनाथी छेदाय, अने चित्तनी विशेष शुद्धि थाय ते साचुं प्रायश्चित छे. शुद्ध–स्वभावनी
भावनारूप निर्मळपरिणाम ते ज प्रायश्चित छे.
शुद्धआत्मा द्रव्यकर्म–भावकर्म–नोकर्मरहित छे; एवा आत्माने ओळखीने तेमां
एकाग्रतारूप वीतरागपरिणाम ते निश्चयथी महाव्रत छे. महाव्रत, समिति, प्रायश्चित,
सामयिक, आलोचना वगेरे बधुं ध्यानमां ज समाय छे. शुद्धआत्मानुं ध्यान ते ज
निश्चयथी महाव्रतरूप चारित्र छे, शुद्धआत्मानुं ध्यान ज सामायिक छे, शुद्धआत्मानुं
ध्यान ज प्रायश्चित्त छे, शुद्धआत्मानुं ध्यान ज परम अहिंसा छे. शुद्धआत्माना आश्रये
निश्चयधर्मध्यान थतां सर्वे परभावो छूटी जाय छे, माटे ध्यानमां ज बधा धर्मो समाई
जाय छे. तेथी आचार्यदेव कहे छे के–
आत्मस्वरूप अवलंबनारा भावथी सौ भावने,
त्यागी शके छे जीव, तेथी ध्यान ते सर्वस्व छे. (११९)
परभावनुं अवलंबन तेमां तो शुभाशुभ भावरूप अपराधनी उत्पत्ति छे; तेथी
परालंबी भाववडे रागादि दोषनो छेद थतो नथी. रागादि सर्वे दोषोनो छेद, ने निश्चय
महाव्रतादि वीतरागीभावोनी उत्पत्ति शुद्धस्वद्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. तेथी
शुद्धात्माने अवलंबनारी जे विशेषपरिणति छे ते प्रायश्चित्त छे, ते संवर छे, तेमां
ईंद्रियनो निरोध छे.
अनीन्द्रिय एवा आत्मानुं ईंद्रियनो यातीत परिणमन ते संयम छे. ते विशुद्ध