: २८ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
(७) वात्सल्य अंगमां प्रसिद्ध श्री विष्णुमुनिराजनी कथा आपणने एम शीखवे
छे के धर्मात्मा साधर्मी जनोने पोताना समजीने तेमना प्रत्ये अत्यंत प्रीतिरूप वात्सल्य
राखवुं; तेमना प्रत्ये आदर–सन्मानपूर्वक दरेक प्रकारे मदद करवी; तेमना उपर कंई संकट
आवी पडे तो पोतानी शक्तिथी तेनुं निवारण करवुं. आ रीते धर्मात्मा प्रत्ये अत्यंत
प्रीतिसहित वर्तवुं. जेने धर्मनी प्रीति होय तेने धर्मात्मा प्रत्ये प्रीति होय ज. धर्मात्मा
उपरनुं संकट ते देखी शके नहीं.
(८) प्रभावना अंगमां प्रसिद्ध वज्रकुमारमुनिराजनी कथा आपणने जैनधर्मनी
सेवा करवानुं अने अत्यंत महिमापूर्वक तेनी प्रभावना करवानुं शीखडावे छे. तन–मन–
धनथी, ज्ञानथी, श्रद्धाथी सर्वप्रकारे धर्म उपरनुं संकट दूर करी, धर्मनो महिमा प्रसिद्ध
करवो अने धर्मनी वृद्धि करवी. तेमां पण आ जमानामां ज्ञानसाहित्यद्वारा धर्मप्रभावना
करवा योग्य छे.
आठ–अंगसहित शुद्ध सम्यक्त्वनी आराधना जयवंत वर्तो
[आवता अंकथी सम्यक्त्वना आठ अंगनुं विगतवार वर्णन शरू करीशुं.
गुरुदेवना प्रवचनोमांथी लीधेलुं आ वर्णन मुमुक्षुने सम्यक्त्व प्रत्ये अति उत्साह
जगाडनारुं छे. आपने ते खूब गमशे. ते वांचवानुं चूकशो नहीं. लवाजम भरवानी
आळसे आपने तेना वांचनथी वंचित न रहेवुं पडे ते जोजो!]
* आत्म–शांति *
भाई, तारो आत्मस्वभाव एवो छे के एनी सन्मुख
परिणमतां आनन्द सहित निर्मळ सम्यक्त्वादिनो उत्पाद थाय छे.
जगतना कोलाहलथी शांत थई, तारा स्वभावने लक्षमां ले. जगत
शुं करे छे ने जगत शुं बोले छे–तेनी साथे तारा तत्त्वने संबंध नथी,
केमके तारो उत्पाद तारामांथी आवे छे, बीजामांथी नथी आवतो.
स्वभावनुं भान थया छतां कांईक राग–द्वेष थाय तो ते
कांई ज्ञान–भावनुं कार्य नथी–एम धर्मीने भिन्नतानुं भान छे,
एटले ते वखते पोतानो ज्ञानभाव चुकातो नथी.
– “आत्मवैभव” मांथी