रहित एक परमभाव ज हुं छुं एम धर्मी अनुभवे छे. आवी अनुभूतिमां सकल
विभावना कर्तृत्वनो अभाव छे.
शुद्धस्वरूपने जाणे छे, ने तेमां चित्तने एकाग्र करे छे, तेने शुद्ध चारित्ररूप परमार्थ
प्रतिक्रमणादि धर्म होय छे, अने ते अल्पकाळमां मोक्ष पामे छे.
एटले के वारंवार तेना अनुभववडे मध्यस्थभावरूप चारित्रदशा प्रगटे छे. पांच
रत्नोवडे सुशोभित परम तत्त्वने जाणनारो मुमुक्षु पंचमगतिने पामे छे.
नथी; १४ मार्गणास्थानो, गुणस्थानो के जीवस्थानोना भेद–विकल्पो पण ते
परमतत्त्वना अनुभवमां नथी; ए बधाथी पार एकली चैतन्यभूतिवडे अनुभवातुं
परम तत्त्व हुं छुं. आवा शांतरसमय मारुं आत्मतत्त्व, तेमां संसारनो कोलाहल क््यां
छे? संसारना कलेशमय कोलाहलथी मारुं तत्त्व अत्यंत दूर छे. आम धर्मी पोताना
अंर्ततत्त्वरूप चैतन्यरत्नने अनुभवे छे. आ पांच रत्नो आवा चैतन्यरत्नने प्रकाशे छे.