: ३४ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
आवा वस्तुस्वभावमां द्रष्टि पडतां तेमां कोई परभावो नथी. आवा
परमतत्त्वने एककोर मुकीने बीजुं गमे तेटलुं जीव करे तेमां कांई हाथ आवे तेम नथी.
अहा! खरेखर आवुं स्वरूप छे–एम स्वीकारीने वारंवार स्वनी भावना करवा जेवी छे;
भावना एटले एकाग्रता.
चैतन्यविलासथी भरपूर मारा स्वभावनी सन्मुख थईने तेने भावतो हुं, चार
गतिना भावोने भावतो नथी, तेनाथी हुं विमुख छुं– जुदो जुदो छुं एटले ते मनुष्यादि
कोई गतिनो हुं कर्ता नथी, मारामां ते गति नथी, ने ते गतिमां हुं नथी. हुं मारा
चैतन्य–विलासमां वळेलो छुं. – आवो पोतानो अनुभव अने वारंवार तेनो अभ्यास
ते मोक्षनो मार्ग छे.
मारामां तो हुं चैतन्यथी भिन्न एवा चारगतिना भावोने करतो नथी ने
बीजामां पण तेवा भावोने हुं अनुमोदतो नथी–प्रशंसतो नथी. अरे, पोतानी
चैतन्यवस्तु शुं छे तेनी खबर विना जीवो चोराशीना अवतारमां कषायनी घाणीमां
पीलाई रह्या छे. ए दुःखनी पीडानुं शुं कहेवुं? पण धर्मी ते दुःखने ओळंगी गया छे. ते
जाणे छे के मारुं तत्त्व चारेगतिना भावोने ओळंगी गयुं छे, मारा चैतन्यना
निजभावोथी ज हुं भरेलो छुं. गतिवगेरेना जेटला उदयभावो छे ते कोई मारा
स्वभावने अवलंबनारा नथी, एटले ते हुं नथी, तेने हुं करतो नथी; मारी शुद्धचैतन्य
सत्तानो ज मने स्वीकार छे; मारी चैतन्यसत्तामां बीजा कोई गतिवगेरे परभावोनो
स्वीकार नथी.
जुओ, आ भेदज्ञान! आवा भेदज्ञानपूर्वक चारित्र थाय छे. तेमां पोताना
ज्ञायक भावनुं ज भजन छे. मारा शुद्धतत्त्वना सेवनथी ज मने लाभ थयो छे. बाकी
रागादि परभावो हो–तेनुं सेवन मने नथी. विकल्पो ते मारी जात नथी. मारी जात
सहज चैतन्यभावथी विलसती छे; मारा परिणाम आवा मारा स्वतत्त्वमां ढळीने मारुं
ज सेवन करे छे.–आम स्वसन्मुखपणे चैतन्यसत्ताना स्वीकारथी मने जे धर्मदशा थई,
तेमां चारगति वगेरेनी सहायता नथी. मनुष्यपर्याय हती तो मने सम्यग्दर्शन थयुं–एम
नथी, मारी चैतन्यसत्ता शुद्ध हती–तो तेना स्वीकारथी मने सम्यग्दर्शन थयुं. आवी शुद्ध–
सत्ताना स्वीकारथी ज जन्ममरणना आरा आवे छे. आ तो अंतरनी वात छे....
अंतरनो मार्ग छे. संतोए मार्ग सुगम करी दीधो छे. आत्माने प्रसिद्ध करवानी कळा
समजावी छे. ‘अहो उपकार जिनवरनो! अहो! उपकार गुरुवरनो! ’