: ३६ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
सरोवरमां पाणी पीवा तो बधाय आवे–तिर्यंचो पण आवे ने मनुष्यो पण
आवे, मोटा आवे ने नाना पण आवे; तेम शरीर तिर्यंचनुं हो के मनुष्यनुं, उमर नानी
हो के मोटी, बधा जीवो पोताना अंतरमां चैतन्यसरोवरना शांतरसनो अनुभव करी
शके छे. आवा शांतरसना समुद्रमां हे जीवो! तमे मग्न थाओ.
जे पोताना शुद्धचैतन्य द्रव्यसन्मुख परिणम्यो छे ते धर्मी जीव एम कहे छे
(एम अनुभवे छे) के हुं सहज चैतन्यभाव छुं; सकल भेदो अने विभावोनो मारामां
अभाव छे. गति के मार्गणाना भेदो, रागादि भावो, कषाय भावो–ए बधाय भावो
मने नथी, ‘मने’ एटले जे पोताना शुद्ध द्रव्यसन्मुख थयेलो छे एवा मने कोई
विभावो नथी. शुद्धद्रव्यमां तो नथी, ने तेमां एकाग्र थयेली पर्यायमां पण नथी. आवी
अपूर्व अनुभूति आ पंचरत्न (गाथा ७७ थी ८१) मां बतावी छे.
“आ प्रमाणे पंचरत्नोद्वारा जेणे समस्त विषयोना ग्रहणनी चिंताने छोडी छे,
अने निज द्रव्यगुणपर्यायना स्वरूपमां चित्तने एकाग्र कर्युं छे, ते भव्यजीव निजभावथी
भिन्न एवा सकळ विभावने छोडीने अल्पकाळमां मुक्तिने प्राप्त करे छे.”
जुओ, शुद्धद्रव्य–गुण तो त्रिकाळी निजभाव छे, अने तेमां एकाग्र थयेली पर्याय
ते पण निजभाव छे; शुद्धद्रव्य–गुण–पर्यायरूप आवा निजभावपणे धर्मी पोताने
अनुभवे छे. निजभावना आवा अनुभववडे धर्मीजीव मुक्तिना पंथे चड्या छे, तेने
अल्पकाळमां ज पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षभाव प्रगट थशे. सम्यग्दर्शनज्ञान–चारित्ररूपे
परिणमेला शुद्धो–पयोगी मुनिने ज प्रवचनसारमां मोक्षतत्त्व कही दीधुं छे.
प्रवचनसारनी छेल्ली पांच गाथाने पण पांचरत्न (शास्त्रनी कलगी जेवां पांच
रत्न) कह्यां छे. तेमां २७१ मी गाथामां द्रव्यलिंगी मिथ्याद्रष्टिने संसारतत्त्व ज कह्युं छे,
ने २७२मी गाथामां शुद्धोपयोगीमुनिने मोक्षतत्त्व कह्युं छे, हजी तो शुद्धोपपयोगवडे
मोक्षने साधी रह्या छे, छतां तेने मोक्षतत्त्व ज कही दीधा छे. शुद्धोपयोगवडे
शुद्धस्वभावमां स्थिर थयेला ते ‘उपशांतआत्मा’ ने मोक्षतत्त्व जाणवुं.
बतावीने कहे छे के अहो! आवा तत्त्वमां उपयोगने एकाग्र करतां समस्त परविषयोनुं
चिंतन छूटी जाय छे ने चित्त निजस्वरूपमां ज एकाग्र थाय छे. निज द्रव्यगुणपर्यायना
स्वरूपमां एकाग्रचित्तवाळो ते जीव, अन्य समस्त विभावोथी रहित थईने परम–