जे शुद्ध चैतन्य परमतत्त्व–एवा स्वात्माने ओळखीने तेनुं चिंतन कर. स्वात्माना
चिंतनथी वीतरागभावनी उत्पत्ति थई ते ज वीतरागनो मार्ग छे. आवा वीतराग–
मार्गनी आराधनावडे ज भवनो अंत पमाय छे ने मोक्षनुं परमसुख अनुभवाय छे.
अनुभववुं ते दोषना अभावरूप प्रायश्चित्त छे, तेमां परभावथी रहित एवा ऊज्वळ–
ज्ञाननुं प्रकाशन छे.
शुद्धज्ञान ते आत्मानो उत्कृष्ट धर्म छे, तेमां शांति–आनंद–प्रभुता वगेरे अनंत धर्मो
समाय छे. हुं पोते आवा शुद्धज्ञाननी मूर्ति छुं–एम ज्ञाननी सम्यक् भावना भावनार
जीवने प्रायश्चित्त छे ज, एटले के तेने ज्ञाननी उत्कृष्ट शुद्धि होय छे ज. अहो, आवा
गुणवंत मुनिवरोने हुं पण तेवा गुणनी प्राप्ति माटे वंदुं छुं.
दोषनो अभाव छे, ने तेमां अनंतगुण समाय छे. प्राय: चित्तस्वरूप एटले उत्कृष्ट
ज्ञानस्वरूप जे पोतानो परम शुद्धआत्मा, तेनी भावना करनारो जीव पोते पण
प्रायश्चितस्वरूप छे. त्रिकाळी आत्मा उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप होवाथी ते निश्चयथी
प्रायश्चित्तरूप ज छे, ने आवा शुद्धस्वभावनी सन्मुख थईने जे पर्यायमां तेनी
सम्यक्भावना भावे छे ते जीवने पण प्रायश्चित छे. परिणतिमां प्रायश्चित्तस्वरूप
त्रिकाळशुद्ध ज्ञान–स्वभावने जेणे धारण कर्यो ते आत्माने सदाय प्रायश्चित्त ज छे.
पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां धारण करे छे. हुं पण आवा आत्मानी सन्मुख थईने तेनी
सम्यक्भावना करतो थको, शुद्धात्मज्ञाननी सम्यक्भावनावंत मुनिन्द्रने वंदुं छुं.