Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
धंधो छे. बापु! वीतरागनी पेढीनो वारसो तारे लेवो होय तो सर्व रागना अभावरूप,
जे शुद्ध चैतन्य परमतत्त्व–एवा स्वात्माने ओळखीने तेनुं चिंतन कर. स्वात्माना
चिंतनथी वीतरागभावनी उत्पत्ति थई ते ज वीतरागनो मार्ग छे. आवा वीतराग–
मार्गनी आराधनावडे ज भवनो अंत पमाय छे ने मोक्षनुं परमसुख अनुभवाय छे.
स्वात्माना ध्यानवडे तत्क्षण सर्वे पापने खंखेरीने मुनिओ मुक्तिसुख पामे छे.
पोताना अचिंत्य परमगुणोथी परिपूर्ण परमात्मानुं अंतरमां भाववुं एटले के
अनुभववुं ते दोषना अभावरूप प्रायश्चित्त छे, तेमां परभावथी रहित एवा ऊज्वळ–
ज्ञाननुं प्रकाशन छे.
मारो आत्मा शुद्धज्ञान छे, शुद्धज्ञानमां क्र्रोधादि कोई दोष कदी छे ज नहि; –एम
पोताना शुद्धज्ञाननो जेने स्वीकार छे एटले के अनुभव छे तेने सदाय प्रायश्चित्त ज छे.
शुद्धज्ञान ते आत्मानो उत्कृष्ट धर्म छे, तेमां शांति–आनंद–प्रभुता वगेरे अनंत धर्मो
समाय छे. हुं पोते आवा शुद्धज्ञाननी मूर्ति छुं–एम ज्ञाननी सम्यक् भावना भावनार
जीवने प्रायश्चित्त छे ज, एटले के तेने ज्ञाननी उत्कृष्ट शुद्धि होय छे ज. अहो, आवा
गुणवंत मुनिवरोने हुं पण तेवा गुणनी प्राप्ति माटे वंदुं छुं.
वाह, शुद्धज्ञानस्वरूप आत्मानी सम्यक्भावना, एटले तेनी श्रद्धा–ज्ञान–
अनुभूतिरूप परिणति, ते ज परमधर्मी जीवोनुं प्रायश्चित्त (उत्कृष्ट ज्ञान) छे, तेमां सर्वे
दोषनो अभाव छे, ने तेमां अनंतगुण समाय छे. प्राय: चित्तस्वरूप एटले उत्कृष्ट
ज्ञानस्वरूप जे पोतानो परम शुद्धआत्मा, तेनी भावना करनारो जीव पोते पण
प्रायश्चितस्वरूप छे. त्रिकाळी आत्मा उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप होवाथी ते निश्चयथी
प्रायश्चित्तरूप ज छे, ने आवा शुद्धस्वभावनी सन्मुख थईने जे पर्यायमां तेनी
सम्यक्भावना भावे छे ते जीवने पण प्रायश्चित छे. परिणतिमां प्रायश्चित्तस्वरूप
त्रिकाळशुद्ध ज्ञान–स्वभावने जेणे धारण कर्यो ते आत्माने सदाय प्रायश्चित्त ज छे.
क्षणिक रागादि अपराध भावोने धर्मी पोताना श्रद्धाज्ञानमां धारण करता नथी,
तेनो तो जुदा ज राखे छे; धर्मी तो निर्दोष परम चित्तने–उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप आत्माने ज
पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां धारण करे छे. हुं पण आवा आत्मानी सन्मुख थईने तेनी
सम्यक्भावना करतो थको, शुद्धात्मज्ञाननी सम्यक्भावनावंत मुनिन्द्रने वंदुं छुं.