Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४९७ आत्मधर्म : ५ :
[अंतर्मुख थईने शुद्धात्मज्ञाननी सम्यक्भावना कर्तव्य छे]
* नियमसार गाथा : ११६ भादरवा वद ६ *
धर्म एटले आत्मानो कायमी ज्ञानगुणस्वभाव; ते स्वभावनी रागरहित
निर्विकार परिणति ते मोक्षना साधनरूप धर्म छे. आत्माए पोताना ज्ञानधर्मने सदा
पोतामां धारी राख्यो छे; आवा आत्मानी सम्यक्भावना वडे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप
धर्म प्रगट थाय छे.
सर्वज्ञस्वभाव ते आत्मानो उत्कृष्ट धर्म छे; अनंतधर्मो त्रिकाळ छे, तेमां
सर्वज्ञस्वभावरूप धर्म मुख्य छे. ते सर्वज्ञस्वभावनी सन्मुख थईने प्रतीत करतां ज
मोक्षमार्ग शरू थाय छे.
ज्ञानधर्म महान छे–उत्कृष्ट छे; ज्ञानमां राग नथी; ज्ञाननी अनुभूति रागथी
पार छे. शुद्धज्ञाननी अनुभूतिमां आत्मा आवी जाय छे. ज्ञानने आत्मा ज कह्यो छे.
आवा ज्ञानस्वभावनी सम्यक्भावनामां चित्तनी अत्यंत शुद्धि होवाथी तेने प्रायश्चित
कहेवाय छे; तेमां ज्ञाननी अतिशयता छे ने रागादि दोषनो परिहार छे.
शरीर–मन–वाणीने एक्कोर राख; ए तो जुदां छे ज; अंदर रागादि
परभावो छे तेने पण ज्ञानथी जुदा ज जाण; ज्ञानधर्ममां राग नथी. आत्मा
ज्ञानधर्म जेटलो छे. तेनो उत्कृष्ट ज्ञानस्वभाव होवाथी ते पोते प्रायश्चित छे. अहो,
आवो ज्ञानधर्म आत्मानो पोतानो छे, तेना वडे आत्मानुं स्वरूप ओळखाय छे.
धर्मने धारण करनार आत्मा, तेने जाण्या वगर धर्म थतो नथी. जाणनारने
जाण्या वगर साचुं ज्ञान क्यांथी थाय? जे जाणनार छे, जे पोते ज्ञानस्वरूप छे,
एवी स्वसत्ताने जाणतां अने तेमां लीन थतां मुक्तिना मार्गरूप शुद्धज्ञान प्र्रगटे
छे, ते शुद्धज्ञानने निश्चियप्रायश्चित्त कहेवाय छे; तेमां मिथ्यात्वादि सर्वे दोषोनो
अभाव छे.