: ६ : आत्मधर्म : आसो : २४९७
मुनिओ शुद्धात्मज्ञाननी सम्यक्भावना करनारा छे. पोताना शुद्धज्ञानस्वरूपनी
सम्यक्भावना क्यारे थाय? के ते स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी सम्यक्भावना थाय
छे; परनी, रागनी के पर्यायभेदनी सन्मुख रहीने शुद्धज्ञाननी सम्यक्भावना थती नथी;
पण परथी परांग्मुख, रागथी रहित ने पर्यायभेदोथी पार थईने, अंर्तसन्मुख अभेद
परिणतिवडे आत्मानी सम्यक्भावना थाय छे. आ सम्यक्भावना ते ज सम्यक्श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्र छे; तेमां ध्येयरूप पोतानो शुद्धआत्मा ज छे; बीजुं कोई नहीं.
अहो, मारो आत्मा अतीन्द्रियज्ञाननो सागर छे, तेमां अतीन्द्रिय शांति छे,
अतीन्द्रियज्ञानस्वभावमां अनंताधर्मो समायेला छे. आवा मारा ज्ञाननी प्रतीत करतां
मारो उत्कृष्ट–सर्वज्ञस्वभाव स्वानुभवमां मने प्रत्यक्षगोचर थाय छे; एटले सर्वज्ञपर्याय
प्रगट करवा क्यांय बहारमां–रागमां जोवापणुं नथी; मारो सर्वज्ञस्वभाव जे मारामां
सत् छे ज–तेनो स्वीकार करीने तेनी सम्यक्भावना वडे तेमांथी सर्वज्ञता आवशे.–आम
धर्मीने प्रतीत छे.
सर्वज्ञस्वभावने मानतां जीव पोते सर्वज्ञताना मार्गमां चडी गयो. रागवाळो,
ईंद्रियज्ञानवाळो हुं छुं एम अनुभवनार जीव मिथ्याभाववाळो छे केमके ते पोताना
सर्वज्ञस्वभावनो स्वीकार करतो नथी. सर्वज्ञस्वभावनो स्वीकार करनारी परिणति तो
रागथी ने ईंद्रियज्ञानथी जुदी पडी जाय छे ने अतीन्द्रिय थईने अंतरना स्वभावना
श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव करे छे. माटे अंतर्मुख थईने शुद्धज्ञाननी आवी सम्यक्भावना
कर्तव्य छे.
मारे मारा आत्माना ज्ञानस्वभाव साथे काम छे, बीजा कोई साथे मारे काम नथी. –
बीजा जीवो माने के न माने, बीजाने समजावतां आवडे के न आवडे, बीजुं जाणपणुं हो के
न हो, मारे तो मारामां जे सर्वज्ञस्वभावरूप परमधर्म छे तेनी साथे ज प्रयोजन छे, एटले
तेनी ज सन्मुख थईने हुं तेने एकने ज सदाय भावुं छुं... वारंवार एनो ज परिचय करुं छुं.
‘अरे, पंचमकाळे सर्वज्ञभगवानना विरह पड्या!’ –पण कांई पोताना
सर्वज्ञस्वभावी आत्मानो विरह छे? –ना; सर्वज्ञता जेमांथी प्रगटे छे एवो सर्वज्ञस्वभावी
आत्मा तो प्रत्यक्ष–प्रगट अंदर बिराजी रह्यो छे; पोतानो पोताने कदी विरह नथी. आवा
सर्वज्ञस्वभावी आत्माने जेणे ओळख्यो ते सर्वज्ञना मार्गमां आवी गयो, पोतामां ज
भगवाननो साक्षात् भेटो थतां सर्वज्ञनो विरह एने मटी गयो...एणे भगवानने