कारतक: २४९८ आत्मधर्म : ७ :
मोक्षमार्गमां तारी पोतानी जे अति–अपूर्व शांत परिणति छे ते ज तारी
साथीदार छे, ते परिणतिमां ज तुं कारणपरमात्मां बिराजी रह्यो छो. अहा, हुं
कारणपरमात्मां जेमां बिराजुं तेमां मोह–रागद्वेष केम रहे? न ज रहे. मारा आत्माने
शुद्धतामां परिणामव्यो त्यां हवे अशुद्धता छे ज नहीं. आनुं नाम मोक्ष माटेनी साची
योगभक्ति छे. आवी भक्ति वडे ज तीर्थंकर भगवंतो निर्वाणना महा आनंदने पाम्या
छे, माटे तुं पण तारा आत्माने आवी योगभक्तिमां जोड.... तने पण महा आनंद
सहित मोक्षमार्ग प्रगटशे.
आत्मामां मोक्षमार्गना दीवडा प्रगट्या ए ज साची दीवाळी.
अहो, ऋषभादि महावीरपर्यंत समस्त जिनवर भगवंतो
आवी परम योगभक्ति वडे ज मुक्तिने पाम्या छे. अहा, मोक्ष ए
तो परमआनंदथी तृप्त दशा छे. परम आनंदमय तत्त्वमां जे परिणति
ढळी गई ते पोते आनंदरूप थई गई, ने भवदुःखथी ते छूटी गई.
माटे हे मोक्षसुखना अभिलाषी भव्यजन! तुं पण तारी परिणतिने
आत्मामां जोडीने आवी योगभक्ति कर. आ योगभक्ति तने परम
वीतराग सुख देनारी छे.
अहो, सुंदर आनंदझरतुं मारुं आ तत्त्व परम उत्तम छे, तेनी
भावनाथी अपूर्व सुख ऊपजे छे. अहा, आवुं सहज सुखरूप मारुं
तत्त्व, तेनी भावनामां तत्त्पर एवा मने हवे जगतना बीजा क्यां
पदार्थनी स्पृहा छे? तेथी–
“गुरुना सान्निध्यमां निर्मळसुखकारी धर्मने प्राप्त करीने,
ज्ञानवडे जेणे समस्त मोहनो महिमा नष्ट कर्यो छे एवो हुं, हवे
राग–द्वेषनी परांपरारूपे परिणत चित्तने छोडीने, शुद्ध ध्यानवडे
शांत–एकाग्र करेला समाहित मनथी मारा आनंदात्मक तत्त्वमां ज
स्थिर रहुं छुं–परमब्रह्म परमात्मामां लीन रहुं छुं.” (नियमसार)