छे; कारणपरमात्माने पोतामां अभेद राखीने ज धर्मीनुं परिणमन वर्ती रह्युं छे, एटले
तेणे पोताने रागथी जुदो करीने पोतानी शुद्ध–निर्विकल्प–आनंदमय–चैतन्यपरिणतिमां
स्थाप्यो छे. –आनुं नाम उत्तम योगभक्ति, अने आ ज मोक्ष मार्ग! ऋषभथी मांडीने
महावीर सुधीना तीर्थंकर भगवंतो आवी योगभक्ति वडे निर्वाणने पाम्या छे, माटे तुं
पण आवा उत्तम योगरूपी भक्ति कर.
पानथी तृप्त–तृप्त थयो छे; ने तेना फळमां मोक्षना सादिअनंत आनंदमय अनंत
चैतन्यरसमां आत्मा परितृप्त थयो. मोक्षनो मार्ग तो आनंदमय छे.
भवदुःखनो तो हवे अंत आवी गयो. सम्यग्दर्शन थतां राग वगरनी चैतन्य शांतिनुं
वेदन थयुं. शुद्ध द्रव्य–गुणनो स्वीकार थयो त्यां आत्मा शुद्ध पर्यायरूपे परिणम्यो, एटले
द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेयथी शुद्धपणे आत्मा परिणम्यो, रागना अंधारा दूर करीने
चैतन्यदीवडानो प्रकाश प्रगट्यो आ साची दीवाळी छे. दीवाळीमां आत्माए पोते
पोताने परम आनंदनी बोणी आपी.
छे. अहो, आ तो संतोना मार्गनुं अमृत छे. थोडुंक पण अमृत परम आनंदने आपे छे ने
अनंतकाळनुं दुःख मटाडे छे. धर्मात्माने ज्यां अंतर्मुख परिणाम थया त्यां तेनी परिणतिमां
हवे निर्मळता ज वहे छे, कारण परमात्माप्रभु तेनी दशामां बिराजे छे, तेमां हवे रागने के
भवने स्थान ज नथी. भाई! तारा आत्माने आवा स्वभाव तरफ उल्लसाव! अरे,
निजानंदथी भरपूर आवा पोताना तत्त्वने भूलीने बीजे क्यांय पण उल्लसाव करीने
रोकाई जाय–ते अंतर्मुख क्यांथी थाय? मुक्तिनो मार्ग त सर्वथा अंतर्मुख ज छे.