Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : १३ :
जेम माताना खोळामां बाळश निःशंक छे के आ माता मारुं हित करशे; तेने
शंका नथी के कोई मारशे तो माता मने बचावशे के नहिं? तेम जिनवाणी मातानी
गोदमां धर्मी निःशंक होय छे के आ जिनवाणी मने सत्य स्वरूप बतावीने मारुं हित
करनारी छे, संसारथी ते मारी रक्षा करशे. आवी जिनवाणीमां तेने संदेह पडतो नथी.
परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा, तेमणे केवळज्ञानमां वीतरागभावे आखा
विश्वने साक्षात् जोयुं ते परमात्माने ओळखीने तेमां निःशंक थवुं, ने तेमणे कहेला
मार्गमां तथा तेमणे कहेला तत्त्वोमां निःशंक थवुं, ते निःशंकता गुण छे.
रत्नकरंडश्रावकाचारमां समन्तभद्रस्वामीए आ सम्यक्त्वना आठ अंगना
पालनमां प्रसिद्ध आठ जीवोनुं उदाहरण आप्युं छे; तेमां निःशंकितअंगमां अंजन चोरनुं
द्रष्टांत आप्युं छे. (आठ अंगनी आठ कथाओ ‘सम्यक्त्वकथा’ नामना पुस्तकमां,
अथवा तो सम्यग्दर्शन भाग चोथामां आप वांची शकशो.) समजाववा माटे एकेक
अंगनुं जुदुंजुदुं द्रष्टांत आप्युं छे, बाकी तो सम्यग्द्रष्टिने एक साथे आठ अंगनुं पालन
होय छे. प्रसंगअनुसार तेमांथी कोई अंगने मुख्य कहेवाय छे.
२. नि:कांक्षा – अंगनुं वर्णन
धर्मीजीवो धर्मद्वारा भवसुखनी वांछा करता नथी; एटले पुण्यने के पुण्यना
फळने ते चाहता नथी; शुभरागथी मने स्वर्गादि सुख मळो एवी वांछा ते भवसुखनी
वांछा छे, तेवी वांछा अज्ञानीने होय छे. ज्ञानीए तो पोताना आत्माने ज सुखस्वरूपे
अनुभव्यो छे एटले हवे बीजे क्यांय सुखबुद्धि तेने रही नथी; तेथी ते निष्कांक्ष छे.
सम्यग्द्रष्टि निःकांक्षगुणवडे भवसुखनी वांछाने नष्ट करे छे. ‘भवसुख’ एम अज्ञानीनी
भाषाथी कह्युं छे; खरेखर भवमां सुख छे ज नहि, पण अज्ञानी देवादिना भवमां सुख
माने छे, आत्माना सुखनी तो तने खबर नथी. अरे, सम्यग्द्रष्टि तो आत्माना सुखने
अनुभवनार, मोक्षनो साधक! ते संसार–भोगोने केम ईच्छे? जेना वेदनथी
अनादिकाळथी दुःखी थयो तेने ज्ञानी केम ईच्छे? भव–तन–भोग ए तो तेने
अनादिकाळनी एठ जेवा लागे छे, अनंतवार जीव तेने भोगवी चुक्यो पण सुखनो
छांटोय तेमांथी न मळ्‌यो.