Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
धर्मनुं प्रयोजन शुं? धर्मनुं प्रयोजन, धर्मनुं फळ तो आत्मसुखनी प्राप्ति थाय छे–
ते छे; धर्मनुं फळ कांई बहारमां नथी आवतुं. जेने आत्माना सुखनो स्वाद जाण्यो नथी
तेने ऊंडे ऊंडे संसार भोगनी चाहना पडी छे, तथा तेना कारणरूप पुण्यनी ने
शुभरागनी रुचि पडी छे, तेने साचुं निःकांक्षपणुं होतुं नथी. भले राज–पाट–घर–कुटुंब
छोडीने त्यागी थयो होय पण ज्यां सुधी रागथी भिन्न चैतन्यरस चाख्यो
(अनुभव्यो) नथी त्यां सुधी तेने संसार भोगनी वांछा पडी ज छे. अने सम्यग्द्रष्टि
जीव राग–पाट–घर–कुटुंबादि संयोगमां वर्ततो होय, ते प्रकारनो राग पण वर्ततो होय,
छतां अंतरमां ते बधायथी पार पोताना चैतन्यरसनो आनंद चाख्यो छे तेथी तेने तेमां
क्यांय स्वप्नेय सुखबुद्धि नथी; एटले राग होवा छतां श्रद्धाना बळे तेने निःकांक्षपणुं ज
वर्ते छे. धर्मीनी आ कोई अलौकिक दशा छे, जे अज्ञानीने ओळखाती नथी.
लोको कहे छे के आपणे धर्म करशुं तो पैसा वगेरे मळशे ने सुखी थशुं–एने तो
धर्मनी खबर नथी ने सुखनीये खबर नथी. ए तो शुभरागने–पुण्यने धर्म माने छे, ने
तेना फळमां पैसा वगेरे मळे तेमां सुख माने. छे; एनाथी भिन्न आत्माना
अस्तित्वनी तो तेने खबर ज नथी. अरे भाई! धर्मना फळमां कांई पैसा न मळे. पैसा
वगेरे मळवा ते कांई धर्मनुं प्रयोजन नथी; धर्मनुं प्रयोजन तो आत्मानुं सुख मळे ते
छे; अने ते सुखमां कांई पैसा वगेरेनी जरूर पडती नथी. ए तो संयोग वगरनुं
स्वाभाविक सुख आत्मामांथी ज उत्पन्न थाय छे. आवा सुखने जे जाणे तेने संसारमां
बीजा कोईनी पण वांछा रहे नहीं, –क्यांय सुखबुद्धि थाय नहीं.
धर्मीने धर्मनी साथेना रागने लीधे पुण्य बंधाय ने ते पुण्यना फळमां बहारनो
वैभव मळे, पण धर्मीने तेनी वांछा नथी, तेनाथी तो ते पोताना आत्माने अत्यंत
भिन्न जाणे छे. धर्मना फळमां पुत्र मळे, पैसा मळे–एवी वांछा धर्मीने नथी. धर्मी जीव
देव–गुरु पासेथी लौकिकहेतुनी आशा राखे नहि. शुभराग होय ने वेपार लग्र–वास्तु
वगेरे प्रसंगे भगवानने याद करे ते जुदी वात छे, तेमां कांई भवसुखनी वांछा धर्मीने
नथी. जे सर्वज्ञनो भक्त थयो तेने संसारनी वांछा होय नहि. रागनो एक कणियो पण
मारां ज्ञानमां नथी–एम जाणनार ज्ञानी ते रागना फळने केम वांछे? मोक्षरूप जे
परमसुख ते सिवाय बीजी कोई आशाथी ते धर्म सेवे नहि. धर्मनुं फळ तो वीतरागी
सुख छे, बाह्यवैभव के ईन्द्रादि पद ते कांई धर्मनुं फळ नथी, ते त रागनुं