Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : १५ :
विकारनुं फळ छे. ते पुण्यरूप धर्मने अज्ञानी ईच्छे छे तेथी ते भोगहेतुधर्मने
सेवे छे–एम कह्युं छे; राग वगरना शुद्धआत्माना अनुभवरूप मोक्षहेतुधर्मनी तेने
खबर नथी.
अंतरना अनुभवमां पोताना चैतन्य–परमदेवने सेवनार धर्मी जाणे छे के मारो
आ चैतन्य–चिंतामणि आत्मा ज मने परम सुख देनार छे. एना सिवाय हुं बीजा कोने
वांछुं? अरे, स्वर्गनो देव आवे तोय मारे एनी पासेथी शुं लेवुं छे? अज्ञानीने तो
स्वर्गनो देव आववानी वात सांभळे त्यां चमत्कार लागे छे ने तेना महिमा आडे धर्मने
भूली जाय छे; केमके एने पोताने स्वर्गादिना भोगनी वांछा छे. अरे, मूर्ख लोको तो
भोगनी वांछाथी सर्प–वांदरा वगेरे हिंसक प्राणीओने पण देव–देवीरूपे पूजे छे.
जुओने, जैन नाम धरावनारा पण घणा लोको भोगनी वांछाथी–पुत्रादिनी वांछाथी
अनेक देव–देवलांने पूजे छे.–मूरखने ते कांई विवेक होय? भगवाननो साचो भक्त
प्राण जाय तोपण खोटा देव–देवलाने पूजे नहीं, माने नहीं. कोई कहे–मांगळिक
सांभळशुं तो पैसा मळशे, –पण भाई! जैनोनुं मांगळिक एवुं न होय; जैनोनुं
मांगळिक तो मोक्ष आपे एवुं होय. मांगळिकना फळमां पैसा मळवानी आशा धर्मी
राखे नहीं. ए रीते धर्मी निष्कांक्ष भावथी धर्मने सेवे छे.
प्रश्न:– वेपार वगेरेमां पैसा मळे एवी वांछा तो धर्मीने पण होय छे, तो तेने
निष्कांक्षपणुं क्यां रह्युं?
उत्तर:– तेने हजी ते प्रकारनो अशुभराग छे; पण आ रागथी के पैसामांथी मने
सुख मळशे–एवी मिथ्याबुद्धिरूप वांछा तेने नथी. राग अने संयोग बंनेथी पार मारी
चेतना छे, तेमां ज मारुं सुख छे, एम जाणनार धर्मी ते चेतनाना फळमां बाह्यसामग्री
वांछतो नथी, तेथी ते निष्कांक्ष छे.
ते धर्मात्मा ईन्द्रपद के चक्रवर्तीपदना वैभवने भोगवतो देखाय छतां तेने विषय
भोगोनो रंचमात्र आदर नथी. अरे, अमे अतीन्द्रिय आनंदना पिंडला, जगतमां क्यांक
अमारो आनंद छे ज क्यां? तेथी तो कह्युं छे के–
चक्रवर्तीकी संपदा, इन्द्र सरीखे भोग।
काकवीठ सम गिनत हैं सम्यग्द्रष्टि–लोग।।
(ईन्दोर हुकमचंदजी शेठना जिनमंदिरमां पण आ दोहरो छे.)
विषयो तरफना विकल्पने धर्मी जीव दुःख अने जेल समान गणे छे, एमां सुख