Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
बुद्धि नथी एटले तेनी वांछा नथी. उत्तम वस्तु खाता–पीता देखाय, स्त्री–पुत्रादि वच्चे
देखाय, तेथी करीने धर्मी तेमां सुख मानता हशे?–ना, एम बिलकुल नथी.
आनंदस्वरूप मारो आत्मा ज छे, परमां सुख जराय नथी–एवा निःशंक भानमां
वर्तता धर्मात्मा देवलोकना सुखनेय वांछता नथी.–एमां सुख छे ज नहीं पछी वांछा
शेनी? चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनी पासे स्वर्गना वैभवनी शी गणतरी? ईन्द्रना
वैभवमां ते सुखनी गंध पण नथी. (सम्यग्द्रष्टि–ईन्द्रने आत्मानुं सुख होय छे ते जुदी
वात छे, पण बहारना वैभवमां तो तेनी गंध पण नथी, ने ते ईन्द्र पोते तेमां सुख
मानता नथी.)
अज्ञानी बहारथी भले विषयोनो त्यागी होय छतां अभिप्रायमां तेने
विषयोनी वांछा छे, केमके रागमां सुखबुद्धि छे. जेणे चैतन्यनुं ईन्द्रियातीत सुख नथी
देख्युं तेने ऊंडे ऊंडे रागमां ने विषयोमां सुखबुद्धि पडी ज छे; जो तेमां तेने मीठाश न
होय तो तेनाथी पाछो वळीने चैतन्यसुखमां केम न आवे? एणे चैतन्यपणुं देख्युं
नथी ने ईन्द्रियविषयोमां सुखबुद्धि छे तेथी तेने साचुं निःकांक्षपणुं होतुं नथी. भले
सीधी रीते ते विषयोनी अभिलाषा न करे पण अंदर अभिप्रायमां तो विषयोनी
आकांक्षा पडी ज छे.
अने, सम्यग्द्रष्टि तो सिद्धनो पुत्र थई गयो; ते तो अखंड एक ज्ञायकस्वभावनी
अनुभूति करीने जीतेन्द्रिय थई गयो. आत्मा सिवाय जगतमां क्यांय तेने सुखबुद्धि
नथी पांचईन्द्रियसंबंधी विषयोनी वृत्ति आवे तेथी तेमां ते सुख मानता हशे–एम
बिलकुल नथी; अंदरना अनाकुळ आनंदनी ज भावना छे. अहा, धर्मीनी चेतनाना
खेल तो धर्मी ज जाणे छे. अज्ञानी उपरटपके जोईने धर्मीनुं साचुं माप काढी शके तेम
नथी. धर्मीना अंतर–हृदय बहारथी देखाय तेवा नथी. धर्मी जाणे छे के मारो धर्म तो
मारामां छे, तेनुं फळ कांई बहारमां न आवे. बहारनां पुण्यफळ ते तो कमोदना उपरनां
फोतरां जेवा छे, लोको तो तेने ज देखे छे, अंदरना खरा वीतरागी कसने लोको देखता
नथी. धर्मना बदलामां लौकिकफळने धर्मी ईच्छता नथी, दुनियाने देखाडवा माटे ते धर्म
करता नथी. धर्मीनो धर्म तो पोताना आत्मामां ज समाय छे ने तेनुं फळ पण आत्मामां
ज आवे छे.
कोई देव आवीने सेवा करे तो धर्मी तेनाथी ललचाय नहि, ने कोई देव आवीने