धर्मबुद्धिथी एवा कोई देवने ते मानता नथी. हुं धर्म करुं तेथी स्वर्गनो कोई देव प्रसन्न
थईने मने लाभ करी देशे–एवी बुद्धि धर्मीने होती नथी, सर्वज्ञ–वीतराग अरिहंतदेव
सिवाय बीजा कुदेवो पासे ते कदी माथुं झूकावता नथी. हुं वीतरागतानो साधक, तो
वीतराग सिवाय बीजाने देव मानुं नहीं. चैतन्यना वीतराग स्वभाव सिवाय पुण्यनी
पण ज्यां वांछा नथी (धर्मी न ईच्छे पुण्यने) त्यां बहारना पाप–भोगोनी शी वात?
जुओ तो खरा, आ तो बधुं सम्यग्दर्शन साथेना व्यवहारमां आवी जाय छे.
सम्यग्दर्शननी निश्चयअनुभूतिनी तो शी वात!
सर्वज्ञता ने वीतरागता ते ज मारा भगवाननो खरो चमत्कार छे; ए सिवाय बहारना
बीजा कोई चमत्कार माटे ते भगवानने माने नहि. बहारना संयोगनुं आववुं–जवुं तो
पुण्य–पाप अनुसार बन्या करे छे, धर्मनी साथे एने शुं संबंध छे? धर्मी जीव एवी
बहारनी आकांक्षा करता नथी. ज्यां रागथी भिन्न आत्माना आनंदने पोतामां देख्यो
त्यां भवसुखनी वांछा क्यांथी रहे? भव कहेतां संसारनी चारेगति आवी गई, स्वर्ग
पण तेमां आवी गयुं, एटले देवगतिना सुखनेय धर्मी वांछे नहीं. आवुं सम्यग्द्रष्टिनुं
निःकांक्षा अंग छे. (आ निःकांक्षा अंगना पालनमां सती अनंतमतीनुं उदाहरण प्रसिद्ध
छे; ते ‘सम्यक्त्वकथा’ वगेरेमांथी जाणी लेवुं.) आ रीते सम्यग्द्रष्टिना आठ गुणमांथी
बीजो गुण कह्यो.