Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : १७ :
त्रास आपे, पैसा वगेरे उपाडी जाय, तो तेनाथी डरीने धर्मी पोतानो धर्म छोडे नहि;
धर्मबुद्धिथी एवा कोई देवने ते मानता नथी. हुं धर्म करुं तेथी स्वर्गनो कोई देव प्रसन्न
थईने मने लाभ करी देशे–एवी बुद्धि धर्मीने होती नथी, सर्वज्ञ–वीतराग अरिहंतदेव
सिवाय बीजा कुदेवो पासे ते कदी माथुं झूकावता नथी. हुं वीतरागतानो साधक, तो
वीतराग सिवाय बीजाने देव मानुं नहीं. चैतन्यना वीतराग स्वभाव सिवाय पुण्यनी
पण ज्यां वांछा नथी (धर्मी न ईच्छे पुण्यने) त्यां बहारना पाप–भोगोनी शी वात?
जुओ तो खरा, आ तो बधुं सम्यग्दर्शन साथेना व्यवहारमां आवी जाय छे.
सम्यग्दर्शननी निश्चयअनुभूतिनी तो शी वात!
अरे, लोको तो बहारना साधारण चमत्कारमां मोही पडे छे. पण एवो चमत्कार
तो हलको अभव्यदेव पण बतावी शके. तेमां आत्मानुं हित शुं छे? धर्मी तो जाणे छे के
सर्वज्ञता ने वीतरागता ते ज मारा भगवाननो खरो चमत्कार छे; ए सिवाय बहारना
बीजा कोई चमत्कार माटे ते भगवानने माने नहि. बहारना संयोगनुं आववुं–जवुं तो
पुण्य–पाप अनुसार बन्या करे छे, धर्मनी साथे एने शुं संबंध छे? धर्मी जीव एवी
बहारनी आकांक्षा करता नथी. ज्यां रागथी भिन्न आत्माना आनंदने पोतामां देख्यो
त्यां भवसुखनी वांछा क्यांथी रहे? भव कहेतां संसारनी चारेगति आवी गई, स्वर्ग
पण तेमां आवी गयुं, एटले देवगतिना सुखनेय धर्मी वांछे नहीं. आवुं सम्यग्द्रष्टिनुं
निःकांक्षा अंग छे. (आ निःकांक्षा अंगना पालनमां सती अनंतमतीनुं उदाहरण प्रसिद्ध
छे; ते ‘सम्यक्त्वकथा’ वगेरेमांथी जाणी लेवुं.) आ रीते सम्यग्द्रष्टिना आठ गुणमांथी
बीजो गुण कह्यो.
(विशेष आवता अंके)
अहा, स्वानुभूतिरूप आ मार्ग, ए तो अनंत आनंदने
आपनारो मार्ग छे. अनंत आनंदनो मार्ग तो आवो अद्भुत ज
होय ने! जगतने आवा मार्गनुं लक्ष नथी एटले बहारमां रागना
सेवनने मार्ग मानी रह्या छे. बापु! तारो मार्ग रागमां नथी;
तारो मार्ग तो तारा चैतन्यमां समाय छे. चैतन्यमां अगाध
गंभीर शांति ने अनंत गुणना भंडार भर्या छे, तेमां जोतां ज
आनंदना दरिया तने देखाशे.