कारतक: २४९८ आत्मधर्म : २५ :
भावि – तीर्थाधिनाथनो मनोहर मार्ग
(अनुसंधान पृष्ठ २२ थी चालु)
अरे जीव! धीरो थईने तारा स्वतत्त्वने अंदर तपास तो खरो. केवुं अद्भुत छे
तारुं चैतन्यत्व! तारा चैतन्यतत्त्वना अनुभवमां तने भव वगरनुं चैतन्यसुख देखाशे,
भव अने भवना कारणरूप समस्त विभाव तो चैतन्यथी अत्यंत दूर थई गया छे, –
जुदा थई गया छे.
अहा, जे पर्याय अंदरमां चैतन्यस्वभावनी समीप आवी, ते पर्याय रागनी
समीप केम जाय? जे पर्यायमां मोक्षसुखनो अनुभव थयो ते पर्यायमां भवदुःखनो
परिचय केम रहे? धर्मी कहे छे के मारा आत्मामां भवनो परिचय नथी; चिदानंद
स्वभावना परिचयमां समतारूप सामायिक छे, एटले के मोक्षमार्ग छे, शांतिनुं वेदन छे.
चैतन्य जेनो चमत्कार छे, अनंत चैतन्यभावोथी जे गंभीर छे एवुं मारुं परम
तत्त्व स्वानुभूतिमां प्रगट्युं छे ते जयवंत छे. रागादि भावोनो परिचय तेमांथी छूटी
गयो छे.
हे जीव! चेतनाने जागृत करीने एवो पुरुषार्थ कर के एक क्षणमां अंदर चिदानंद
स्व्भावमां ऊतरी जा.... ने बधाय परभावोथी छूटो पडी जा. शुद्धतारूप परिणमवानो
तारो स्वभाव छे, ने तेनो आ अवसर छे. शुद्धतत्त्वने जाणतां शुद्ध परिणमन थाय छे,
ते ज सामयिक छे, तेमां आत्मानी प्राप्ति छे. पोताना टंकोत्कीर्णनिज महिमामां लीन
एवा शुद्धतत्त्वने सम्यग्द्रष्टि साक्षात् जाते छे. तीर्थंकरो–गणधरो–मुनिवरो–संतो तेमना
हृदयमां जे सदा स्थित छे एवुं परम महिमावंत चैतन्यतत्त्व मने पण मारी
अनुभूतिमां गोचर थाय छे–एम सम्यग्द्रष्टि अनुभवे छे. पोते पोताने प्रत्यक्ष थाय
एवो ज मारो स्वभाव छे. आवा पोताना आत्माने एककोर मुकीने कदी कल्याण थाय
नहीं. पोतानुं महान तत्त्व केवुं छे–तेने ज्ञानमां अत्यंत समीप करीने, स्वानुभवगोचर
करीने अपूर्व कल्याण थाय छे. आत्मा कांई अगोचर वस्तु नथी, सम्यग्द्रष्टिना
स्वानुभवमां ते आनंदसहित गोचर थाय छे.
धर्मात्माना बधा निर्मळ भावोमां पोतानो शुद्धआत्मा ज संनिष्ठ छे, –
स्वपर्यायमां आत्मा ज सम्यक्पणे स्थित छे, पर्याये–पर्याये आत्मा ज तेने समीप वर्ते
छे. तेनी एककेय पर्यायमां आत्मा दूर नथी पण सर्वे पर्यायोमां आत्मा समीप ज