Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : ३३ :
ऊघडे. अनंत जन्म–मरणना नाशना उपायमां ने मोक्षना परमआनंदनी प्राप्तिमां
सम्यग्दर्शन ज पहेलुं पगथियुं छे. तेना वगर ज्ञाननुं जाणपणुं के शुभरागनी क्रियाओ
ते बधुं निरर्थक छे. धर्मनुं फळ तेना वडे जराय आवतुं नथी, माटे ते निरर्थक छे.
नवतत्त्वोनी एकली व्यवहार श्रद्धा व्यवहार जाणपणुं के पंचमहाव्रतादि शुभ आचार, ते
कोई राग आत्माना सम्यग्दर्शन माटे जराय कारणरूप नथी; विकल्पनी मदद वडे
निर्विकल्पता कदी पामती नथी. सम्यक्त्वादिनी भूमिकामां तेने योग्य व्यवहार होय छे
एटली तेनी मर्यादा छे, पण ते व्यवहार छे माटे तेने लईने निश्चय छे–एम नथी.
व्यवहारना जेटला विकल्पो छे ते बधाय आकुळता अने दुःख छे, विकल्प वडे कंई
आत्मानुं कार्य ज्ञानीने थतुं नथी; त वखते ज तेनाथी भिन्न एवा निश्चय–श्रद्धा–
ज्ञानादि पोताना आत्माना अवलंबने तेने वर्ते छे अने ते ज मोक्षमार्ग छे. आवा
निरपेक्ष निश्चय सहित जे व्यवहार होय ते व्यवहार तरीके साचो छे.
सम्यग्दर्शन वगर ज्ञान के चारित्रमां साचापणुं आवतुं नथी, एटले जूठापणुं
रहे छे. सम्यग्दर्शन वगर बधुंय खोटु?–हा, मोक्षने माटे तो बधुंय निरर्थक, धर्मने माटे
बधुं नकामुं; शास्त्रज्ञाननी वात करीने गमे तेटलुं लोकरंजन कर, धारावाही भाषणमां
न्यायोनी झपट बोलावे, के व्रतादि आचरणरूपे क्रियाओ वडे लोकमां वाह–वाह थाय,
पण सम्यग्दर्शन वगर तेनुं ज्ञान ने आचरण बधुंय मिथ्या छे, तेमां जराय आत्मानुं
हित नथी; तेमां मात्र लोकरंजन छे, आत्मरंजन नथी, आत्मानुं सुख नथी.
व्यवहारश्रद्धा–ज्ञान–चारित्र ते बधाय सम्यग्दर्शन वगर केवां छे?–तो कहे छे के
ते सम्यक्ता न लहे एटले के साचां नथी पण खोटां छे, तेना वडे मोक्षमार्ग जराय
सधातो नथी. सम्यग्दर्शन पूर्वक ज साचां ज्ञान–चारित्र होय छे ने मोक्षमार्ग सधाय छे;
माटे ते धर्मनुं मूळ छे.
अहो, आवा पवित्र सम्यग्दर्शनने हे भव्य जीवो! तमे धारण करो, बहुमानथी
तेनी आराधना करो. हे सूज्ञ–समजदार आत्मा! तुं समज, तुं चेती जा, तुं सावधान था,
अने प्रमाद वगर शीघ्र सम्यग्दर्शन प्रगट कर. सम्यग्दर्शननो आ उत्तम अवसर छे. फरी
फरी आवो अवसर मळवो दुर्लभ छे. माटे आवो उत्तम उपदेश सांभळीने, एकक्षण पण
गुमाव्या वगर अत्यारे ज अंतरमां पोताना शुद्धआत्मानी अखंड अनुभूति सहित
श्रद्धा करीने सम्यग्दर्शनना दीवडा प्रगटाव हे भव्य! हे सुखना