Atmadharma magazine - Ank 337
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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कारतक: २४९८ आत्मधर्म : ३ :
सम्यग्द्रष्टि–योगीजनो ज पोताना अखंड अद्वत परमआनंदने अनुभवे
छे. आवो आनंदनो अनुभव प्रगटे ते ज चैतन्यना दीवडाथी
झगझगती दीवाळी छे.
अहा, आवुं अपूर्व चैतन्यसुख, ते बाह्यद्रष्टिवाळा बीजा जीवोने
क्यांथी होय? उपयोगने रागथी छूटो करीने अंतरमां जे जोडे तेने ज
आवुं अपूर्व चैतन्यसुख अनुभवाय छे. आवी दशा ते ज भवना
अंतनो पंथ छे, ते ज महा आनंदनो मार्ग छे. आवी दशावडे ज
आत्मामां साची आनंदमय दीवाळी उजवाय छे.
चैतन्यन परिणतिने पोताना कारणपरमात्मा साथे ज मेळ खाय
छे, ए सिवाय दुनियाना प्रपंच साथे एने मेळ खाय तेम नथी. माटे
दुनियाना कोई अज्ञ जीवो कदाच तारा सत्मार्गनी निंदा करे तोपण तुं
मार्ग प्रत्येनी परमभक्तिने के उत्साहने छोडीश नहीं. अहा, आ ज मारा
सुखनो मार्ग छे–एम परम निःशंकपणे अंतरमां तारा मार्गे चाल्यो जाजे.
आवो अंतरनो मार्ग बहारना शुभाशुभ प्रपंचमां रोकायेला जीवोने
क्यांथी होय? दुनिया दुनियामां रही, मारो मार्ग तो मारामां समाय छे.
चैतन्य चमत्कारनी भक्ति वडे आत्मा मुक्ति पामे छे. ते भक्ति
केम थाय? के महाशुद्ध रत्नत्रयस्वभावी आत्मा छे तेमां पोताने सम्यक्
परिणामवडे स्थापवो ते निश्चयभक्ति छे, ते मुक्तिनुं कारण छे.
भाई, तारा सुखना पंथ तारा आत्मामांथी नीकळे छे; जेमां
महान सुख भरेलुं छे एवो तुं पोते तारा आत्मामां एकाग्र थईने
सुखनो अनुभव कर, ते ज तारा सुखनो पंथ छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे निर्मळ पर्याय ते रूपे पोतानो
आत्मा परिणमे छे. रत्नत्रयस्वभाव आत्मामां त्रिकाळ छे, ते महा–शुद्ध
रत्नत्रयवाळा स्वभावने तारी निर्मळ पर्यायमां स्थाप. आत्माने
रागमां न स्थाप; स्वसन्मुख चैत्नयपरिणतिमां आत्माने स्थाप.
अरे, आत्मानी शांतिथी बहार नीकळीने चोराशीना चक्करमां दुःखी
थईने डोली रहेलो आ आत्मा, तेने तेमांथी बहार काढवा माटे, दुःखनी
भडभडती अग्निमांथी आत्माने बचाववा माटे, हे जीव! अंदर महान