: ४ : आत्मधर्म कारतक: २४९८:
शांतिनुं सरोवर छे, तेमां तारा आत्माने तरबोळ कर; स्वभावनी
सन्मुख थईने सम्यक् परिणाममां तारा आत्माने स्थाप ते ज चैतन्यनी
परम भक्ति छे, तेनुं फळ मुक्ति छे.
वाह! मुक्तिनो मार्ग... तेनो पण कोई परम अचिंत्य महिमा तो
जे आत्मस्वभावमांथी आवो मार्ग प्रगटे छे तेना महिमानी शी वात!
आवा स्वभावने लक्षगत करतां तेना परम महिमारूप भक्ति जागे छे,
ने परिणाम तेमां एकाग्र थईने तेने ज भजे छे; ते भक्तिवडे जीव
आनंदमय मोक्षघरने पामे छे.
आत्मानुं चैतन्यघर महान आनंदथी अतिशय शोभी रह्युं छे;
आ चैतन्यघरथी ऊंचुं बीजुं कांई जगतमां नथी. अरे जीव! तारा घरमां
आवीने तारा आत्मानी शोभा तो जो! अद्भुत–अलौकिक आनंद तेमां
भरेलो छे... चैतन्यभगवान तेमां वसे छे... भगवानपणुं तारा घरमां
ज भरेलुं छे; ने कोई विभावनो कचरो तेमां नथी, कोई विपदा तेमां
नथी. परम भक्तिथी आवा चैतन्यचमत्कार–आनंदमय स्वघरमां
आत्माने स्थिर करता तारो आत्मा अतिशय आनंदथी शोभी उठशे...
दीवाळीना चैतन्य दीवडा आत्मामां झगझगी ऊठशे.
हुं तीर्थंकरोना पंथे जाउं छुं
अरे जीव! भवचक्रमां तुं दुःखथी रखडी रह्यो छो; एकवार आनंदमूर्ति पोताना
आत्माने लक्षमां लईने तेनो अनुभव कर तो तारा बधाय भव टळी जशे, ने मोक्षनो
मार्ग तारामां ज प्रसिद्ध थशे. अरे, मनुष्यपणुं पामीनेय जो मोक्षनो उपाय न कर्यो तो
तें शुं कर्युं? आ मनुष्यअवतारमां करवा जेवुं काम तो आ एक ज छे. बीजा शुभ–
अशुभ होय ते कांई चैतन्यनी चीज नथी. ज्ञानने अंतर्मुख करीने सीधो ज्ञानानंदस्वरूप
साथे संबंध कर. –तेमां तने आत्मलब्धिरूप मुक्ति थशे. मोक्षनो महा आनंद तने तारा
आत्मामां ज अनुभवाशे; माटे उपयोगने आत्मामां जोडीने अनुत्तम सौथी श्रेष्ठ एवी
योगभक्ति कर. बधाय तीर्थंकर भगवंतो आवी उत्तम योगभक्तिवडे ज निर्वाणने
पाम्या छे, हुं पण आवी योगभक्ति वडे मुक्तिना मार्गमां ते तीर्थंकरोना पंथे जाउं छुं.