Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४९८ आत्मधर्म : १७:
“आनंदथी मोक्षने साधी रह्या छीए”
अहा, मारुं तत्त्व ज परम आनंदरूप छे; तेमां अंतर्मुख
थईने सम्यग्दर्शन थतां स्ववशपणे आनंदपरिणति शरू थई गई;
अंतरना पूर्ण आनंदना सरोवरमांथी आनंदना पूर वहेवा मांड्या,
त्यां सर्वे परभावोने ते धोई नांखे छे, ने परभाव वगरनी चोख्खी
चेतना आनंदना पूरसहित वहे छे.–आवी दशा ते धन्यदशा छे.
अरे, आवी दशा तो धन्य छे, ने आवी दशा जेनाथी प्रगटे
एवा चैतन्यतत्त्वनी अध्यात्म–वार्ता प्रीतिपूर्वक जेओ सांभळे छे
तेओ पण धन्य छे...तेओ पण अल्पकाळमां आनंदसहित
आत्मानो अनुभव करीने मोक्षने पामशे.
(नियमसार गा. १४६ तथा तेना उपरना आठ श्लोकना प्रवचनमांथी: २४९८ कारतक सुद १५)

भगवान! तारो आत्मा ज एवो आनंदधाम छे के जेने ध्यावतां एमांथी
आनंदनो प्रवाह नीकळे छे, तेमाथी दुःख नथी नीकळतुं. ‘आत्मा’ ज तेने कहेवाय के
ज्ञान ने आनंदभावरूपे जे परिणमे.
आवा आत्माने वश रहेनारो धर्मजीव रागने वश कदी थतो नथी; विकल्प हो
पण तेनी चेतना विकल्पने वश थती नथी, तेमां तन्मय थती नथी, चेतना विकल्पोथी
छूटीने छूटी रहे छे, ने चैतन्यभावमां ज मग्न रहे छे. चैतन्यने चूसतां धावतां तेने
आनंदरस आवे छे.
बापु! तुं हलको नथी, –राग जेटलो नथी, नानो नथी, तुं तो मोटो महान् छो,
रागथी पार परम आनंद–ज्ञान आदि अनंता स्वभावोथी भरेलो तुं तो मोटो परमात्मा
छो; रागमां तो परवशपणुं छे, एवुं परवशपणुं तने शोभे नहीं. तारा चैतन्यधाममां
चित्तने जोडीने स्ववश था, तेमां महान आनंद छे, तेमां ज तारी शोभा छे.
स्ववशपरिणति वगर आनंद केवो? ने धर्म केवो? महान आनंद–आनंदने