Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २०: आत्मधर्म २४९८: मागशर
जे जीव स्ववश छे,–एटले विकल्पोथी जुदो पडीने निजचैतन्यमां एकत्वभावे
परिणम्यो छे ते जीव सदाय धन्य छे; एवा स्ववश जीवमां अने सर्वज्ञ वीतरागमां
क्यारेय कांई भेद नथी. अहा, जुओ तो खरा! धर्मीनी परिणतिने सर्वज्ञ साथे
सरखावी. जेम सर्वज्ञनी चेतनापरिणतिमां रागादि विकल्पोनो अभाव छे, तेम
साधकनी पण चेतना परिणतिमां रागादि विकल्पोनो अभाव छे; चेतनामां विकल्प छे
ज नहीं. विकल्पथी जुदी पडीने चेतनाए अंतरमां आत्मानो आश्रय कर्यो त्यारे
स्ववशपणुं थयुं. सम्यग्दर्शनमां पण आवुं स्ववशपणुं छे; पछी ध्यानमां लीन मुनिने
घणुं स्ववशपणुं छे; सर्वज्ञने संपूर्ण स्ववशपणुं छे. अहीं तो कहे छे के स्ववशपणे
परिणमेला जीवमां अने सर्वज्ञमां कोई भेद अमे देखता नथी. बधायने अंतरमां
पोताना आनंदमय स्वतत्त्वना अवलंबने स्ववशपणुं वर्ते छे. आनंदमां लीन थईने
आवुं स्ववशपणुं जेने प्रगट्युं छे ते जीव धन्य छे....सदाय धन्य छे.
अंतरना चैतन्यतत्त्वमां ऊंडी ऊतरेली चेतना सर्वे कर्मोथी बहार रहे छे.
चैतन्यनी अनुभूति वडे विकल्पथी जुदी पडेली चेतना सर्वे विकल्पोथी जुदी ज रहे छे ने
अंदर चैतन्यभगवान साथे अनन्य थईने आत्मवश रहे छे. आवुं आत्मवशपणुं ते ज
सर्वज्ञनो मार्ग छे ने ते महान आनंदस्वरूप छे, तेथी ते धन्य छे. अहा, मारी
आनंददशा मारा आत्माने ताबे ज वर्ते छे; मारी आनंददशा, मारी धर्मदशा
कोई बीजाने ताबे नथी, तेथी तेमां स्ववशपणुं छे. आवा स्ववशपणाथी ज जीवने
कर्मनो क्षय थईने मुक्ति प्रगटे छे.
अहा, मारुं तत्त्व ज परमआनंदवाळुं छे, त्यां मने मारा आनंद माटे बीजा
कोनी स्पृहा होय? ज्यां अंतर्मुख थईने आत्मवश परिणति प्रगटी त्यां मारो अवतार
सफळ छे. ज्यां आत्मवशपणुं नथी ने परवशपणुं नथी ने परवशपणुं छे त्यां तो
आकुळतामां ज रोकावानुं छे. परभावोना दुःखथी रक्षा करवा माटे अमारुं एक
चैतन्यतत्त्व ज अमने शरणरूप छे. सम्यग्दर्शन थतां स्ववशपणे आनंदपरिणति शरू
थई गई, अंतरमां पूर्ण आनंदना सरोवरमांथी आनंदना पूर वहेवा मांड्यां त्यां सर्वे
परभावोने ते धोई नांखे छे ने परभाव वगरनी चोख्खी चेतना आनंदना पूरसहित
वहे छे.–आवी दशा ते धन्य दशा छे.
अध्यात्म–वार्ता प्रीतिपूर्वक जेओ सांभळे छे तेओ पण धन्य छे...तेओ पण
अल्पकाळमां आनंदसहित आत्मानो अनुभव करीने मोक्षने पामशे.