मागशर: २४९८ आत्मधर्म : २१:
निजात्मभावनामां तत्पर मुमुक्षु जीव
जगतन अन्य पदर्थो प्रत्य परम नस्पह छ
[वीर सं. २४९८ कारतक सुद ७ नियमसार पानुं २८१]
स्वतत्त्वने जाणतां धर्मी कहे छे के हवे आत्माथी बाह्य समस्त पदार्थोनी
लोलूपता अमने छूटी गई छे, ने अंतरना चैतन्यतत्त्वमां ज अमारुं चित्त लोलूप छे,
तेमां ज अत्यंत उत्सुक छे; केमके सुंदर आनंदझरतुं उत्तम तत्त्व अमारा अंतरमां
प्रगट्युं छे.
अति–अपूर्व निजात्मभावनाथी जे परम सुख प्रगट्युं छे तेमां ज अमारो
प्रयत्न छे...ते ज अमारुं अत्यंत जरूरनुं कर्तव्य छे, केमके ते ज अमारुं हित छे.
मारे मारा आत्मा सिवाय जगतना बीजा कोई पदार्थ साथे शुं प्रयोजन छे?
मारुं परमात्मतत्त्व मारा एकत्वमां ज डोली रह्युं छे, द्वंद्वमां ते रहेलुं नथी. आवा
एकत्वरूप, निर्दोष, एकमात्र आत्मतत्त्वनी ज हुं फरीफरी सम्यक्भावना करुं छुं, मने
एक क्षणनी मोक्षसुखनी ज स्पृहा छे, ने भवना सुख प्रत्ये हुं तद्न निस्पृह छुं.
एकत्वस्वरूपमां तत्पर जीवने पर साथे कांई संबंध ज क्यां छे? मारा एकत्वमां ज
मारुं सुख समाय छे.
भाई, तारे दुःखना त्रासथी छूटवुं होय ने सुखी थवुं होय तो आनंदधाम तारा
आत्मा साथे संबंध कर एटले के तेमां ज परिणतिने जोडीने एकत्व कर. ते ज तारी
सुखनी जरूरियात पूरी पाडे छे. परना संबंधथी तारी सुखनी जरूरीयात पूरी नहि पडे.
अरे, हुं पोते सत् तत्त्व छुं, मारो स्वभाव चेतनारूप ने सुखरूप छे, तेनी ज
भावनावडे मारो आत्मा सुखरूप परिणमे छे. मारुं स्वरूप ज मारा माटे सर्वस्व