तत्परता आडे बीजा कोई साथे संबंध करवानी फूरसद ज क्यां छे?
आत्माथी बहार दूर–दूर छे, तेनी साथे संबंध करवा जतां तो दुःख थशे. ते दूरना
पदार्थोथी तने शुं फळ छे? आ रीते धर्मात्मजीव स्वतत्त्वनी ज भावनामां तत्पर छे ने
जगतना समस्त पदार्थो प्रत्ये परम निस्पृह छे. आवी स्वतत्त्वनी भक्तिरूप आराधना
ते मुक्तिसुखनी देनारी छे. मुक्तिसुखमां ऊडवुं होय तो हे जीव! परिणतिने अंतरमां
जोडीने एकत्वभावना कर. तारुं एकत्वपणुं ते कदी सेव्युं नथी ने परनो संबंध तोड्यो
नथी. आचार्य भगवान कहे छे के अहो! आत्मानुं एकत्वपणुं अत्यंत सुंदर छे ते अमे
समस्त आत्मवैभवथी देखाडीए छीए; तमे पण तमारा स्वानुभवथी एकत्व–विभक्त
आत्माने जाणो. तेने जाणता ज आत्मामां सुंदर आनंदतरंग ऊछळशे.
परिणाममां तो कषाय छे–अशांति छे, बनेनी जात ज तद्न जुदी छे. सुखना सागरनी
शांति कोई अलौकिक छे; एनो स्वाद लेनार धर्मीजीव बीजे क्यांय तन्मय थतो नथी,
कोई परभावने वश थतो नथी. कोईने वश नहि एवी पोतानी अंतर्मुख परिणति, ते
ज धर्मीनुं आवश्यक कार्य छे, ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
प्रपंचरूप थती नथी. आखा आत्मानो आनंदरस तेनी परिणतिमां निरंतर घोळाया करे
छे, पछी जगतमां बीजा क्या पदार्थनी एने स्पृहा होय? –ए तो परम निस्पृह छे.
थयुं; शुद्धोपयोगवडे स्वयं धर्मरूप थयेलो जीव आनंदथी भरेला सरस ज्ञानतत्त्वमां
शोभे छे. ज्ञानतत्त्वमां ज आनंद छे, ते ज जगतमां सौथी श्रेष्ठ सुंदर छे. जेम