Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २२: आत्मधर्म २४९८: मागशर
छे. परनी साथे मारे शुं लेवा–देवा छे? अरे, अमारा चैतन्यनी एकनी भावनामां
तत्परता आडे बीजा कोई साथे संबंध करवानी फूरसद ज क्यां छे?
देह–मकान वगेरे बाह्य पदार्थो कांई चैतन्यसुख माटे जरूरनी वस्तुओ नथी.
सुख माटे जरूरी एटलुं ज के परिणामने तारा आत्मामां ज जोड. बीजा पदार्थो तो
आत्माथी बहार दूर–दूर छे, तेनी साथे संबंध करवा जतां तो दुःख थशे. ते दूरना
पदार्थोथी तने शुं फळ छे? आ रीते धर्मात्मजीव स्वतत्त्वनी ज भावनामां तत्पर छे ने
जगतना समस्त पदार्थो प्रत्ये परम निस्पृह छे. आवी स्वतत्त्वनी भक्तिरूप आराधना
ते मुक्तिसुखनी देनारी छे. मुक्तिसुखमां ऊडवुं होय तो हे जीव! परिणतिने अंतरमां
जोडीने एकत्वभावना कर. तारुं एकत्वपणुं ते कदी सेव्युं नथी ने परनो संबंध तोड्यो
नथी. आचार्य भगवान कहे छे के अहो! आत्मानुं एकत्वपणुं अत्यंत सुंदर छे ते अमे
समस्त आत्मवैभवथी देखाडीए छीए; तमे पण तमारा स्वानुभवथी एकत्व–विभक्त
आत्माने जाणो. तेने जाणता ज आत्मामां सुंदर आनंदतरंग ऊछळशे.
अहो, उपशमरसझरती वीतरागवाणी एम बतावे छे के आत्मां शांत–अकषाय–
आनंदमय चैतन्यरसथी भरेलो छे. अंतर्मुख परिणाम शांतरसरूप छे, ने बहिर्मुख
परिणाममां तो कषाय छे–अशांति छे, बनेनी जात ज तद्न जुदी छे. सुखना सागरनी
शांति कोई अलौकिक छे; एनो स्वाद लेनार धर्मीजीव बीजे क्यांय तन्मय थतो नथी,
कोई परभावने वश थतो नथी. कोईने वश नहि एवी पोतानी अंतर्मुख परिणति, ते
ज धर्मीनुं आवश्यक कार्य छे, ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
सम्यग्द्रष्टिने जे अंतर्मुख परिणति थई छे ते सदाय स्ववश वर्ते छे, ते कदी
पुण्य–पापने वश थती नथी. अंतर्मुख चेतनापणे जे परिणति थई छे ते कदी रागादि
प्रपंचरूप थती नथी. आखा आत्मानो आनंदरस तेनी परिणतिमां निरंतर घोळाया करे
छे, पछी जगतमां बीजा क्या पदार्थनी एने स्पृहा होय? –ए तो परम निस्पृह छे.
पर पदार्थोनी अत्यंत निस्पृह थईने पोताना ज्ञानतत्त्वमां लीन थयेलो जीव
सहज चैतन्यप्रकाशवडे अत्यंत शोभे छे. ज्ञान ज्ञानमां लीन थयुं एटले शुद्धोपयोगरूप
थयुं; शुद्धोपयोगवडे स्वयं धर्मरूप थयेलो जीव आनंदथी भरेला सरस ज्ञानतत्त्वमां
शोभे छे. ज्ञानतत्त्वमां ज आनंद छे, ते ज जगतमां सौथी श्रेष्ठ सुंदर छे. जेम