Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४९८ आत्मधर्म : २३:
रत्नदीपकनो प्रकाश निष्कंप होय छे, ते वावाझोडाथी पण डगतो नथी तेम आनंदमय
ज्ञानतत्त्वमां लीन थयेला धर्मात्मानी सहज चेतना निष्कंपपणे प्रकाशे छे, कोई अनुकुळ
प्रतिकूळ संयोगो के कोई परभावोनां वावाझोडा वच्चे पण ते चेतना डगती नथी.
चैतन्यतत्त्व पोते जे चेतनारूपे परिणम्युं छे ते परिणति सदाय वर्त्या ज करे छे. ते
परिणति पोताना चैतन्यस्वभावमां ज लीन छे, ने बीजा बधायथी परम निस्पृह छे,
छूटीने छूटी ज रहे छे. परनी अपेक्षा वगर, स्वयं आत्मा पोते शुद्धोपयोगरूप थयो छे,
ते ज धर्म छे; ते ज धर्मीजीवनुं आत्मवश एवुं आवश्यक कार्य छे; तेमां कोईनी
परवशता नथी. आवुं स्ववशपणुं ते अतीन्द्रिय आनंदथी सहित छे; आत्मानुं
कोई अद्भुत निर्विकल्प सुख तेमां अनुभवाय छे.
सुखने माटे करवा जेवुं एक ज काम
आत्मा सदाय पोताना चैतन्यरसथी परिपूर्ण महान
आनंदमंदिर छे; तेमां अंतर्मुख थवारूप आवश्यक–कार्य करनार
जीव कोई वचनातीत सहजसुखने अनुभवे छे. आ एक ज कार्य
संसारना घोर दुःखोनुं नाशक छे, ने परम मुक्तिसुखनुं कारण छे.
माटे हे भव्य जीवो! हे सुखने चाहनारा जीवो! अंतरमां
शुद्धोपयोगने जोडीने निजात्मतत्त्वना अनुभवरूप आवुं उत्तम
कार्य करो. आ एक ज जरूर करवा जेवुं कार्य छे. बीजा बधा
रागनां कार्यो तो संसारदुःख देनार छे, तेमां आत्मशांति नथी.
आत्मशांति अनुभववी होय तो तेने माटे करवा जेवुं एकमात्र
आ ज कार्य छे के अंतरमां सहज चैतन्यसुखथी भरपूर निज
परमात्मतत्त्वरूपे पोते पोताने ध्याववो. एवा ध्यानवडे तरत ज
पोतामां विकल्पातीत अध्यात्मसुख प्रगटे छे.