Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २६: आत्मधर्म २४९८: मागशर
सम्यग्द्रष्टिनां आठ अंगनुं सुंदर वर्णन
आखुंय चैतन्यतत्त्व जेमां उल्लसे छे एवा सम्यक्त्वनो अद्भुत महिमा
अहा, चैतन्यमां अनंत स्वभावो भर्या छे, तेनो
महिमा अद्भुत छे. तेनी सन्मुख थईने रागरहित
निर्विकल्प प्रतीत करतां अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सहित
सम्यग्दर्शन थाय छे; तेमां अनंत गुणोना निर्मळ भावो
समाय छे, ते मोक्षमार्ग छे. आवा सम्यक्त्वनी साथे
धर्मीजीवने निःशंकतादि आठ गुण केवा होय छे तेनुं
आनंदकारी वर्णन चाले छे. बे अंगनुं वर्णन आपे गतांकमां
वांच्युं, त्यारपछीनुं आप अहीं वांचशो. आ वर्णन पू.
गुरुदेवना छहढाळा–प्रवचनमांथी लीधुं छे.
(सं.)
३. निर्विचिकित्सा–अंगनुं वर्णन

जेने आत्मा अने शरीरने भिन्न जाण्या छे एवा सम्यग्द्रष्टि जीव शरीरमां
अशुचि देखीने आत्माना धर्म प्रत्ये ग्लानि करता नथी; एटले कोई मुनि वगेरे
धर्मात्मानुं शरीर मलिन के रोगवाळुं देखीने तेमना प्रत्ये घृणा–दुर्गंछा थती नथी, पण
शरीर मेलुं होवा छतां अंदरमां आत्मा तो चैतन्यधर्मोथी शोभी रह्यो छे–तेनुं तेने
बहुमान आवे छे. आवा मेला–कोढिया शरीरवाळाने ते कांई धर्म होय!–एम धर्म प्रत्ये
दुर्गंछानो भाव थतो नथी, एवुं सम्यग्द्रष्टिनुं निर्विचिकित्सा–अंग छे.
सर्वज्ञना देहमां तो अशुची होती ज नथी, तेमज तेमने रोगादि पण होतां नथी.
पण साधक धर्मात्मा–मुनि वगेरेने तो देहमां मलिनता के रोगादि पण होय, कोईवार
शरीरमां कोढ थाय, शरीर गंधाई जाय; तो तेने देखीने धर्मी विचारे छे के अहो, आ
आत्मा तो अंदर सम्यग्दर्शनादि अपूर्व रत्नोथी शोभी रह्यो छे, देहप्रत्ये एमने
कांई ममत्वबुद्धि नथी, रोगादि तो देहमां थाय छे, ने देह तो स्वभावथी ज