मलिनता वगेरे देखीने पण धर्मात्मा प्रत्ये ग्लानि करतो नथी. पोताना शरीरमां पण
रोगादि मलिनता थाय तो तेथी पोताना धर्मोथी ते डगतो नथी के धर्ममां शंका करतो
नथी. मुनिओ तो देह प्रत्ये अत्यंत उदास छे, स्नानादि तेओ करता नथी, देहनी
शोभानुं के देहना शणगारनुं तेमने लक्ष नथी, तेओ तो स्वानुभवरूपी स्नानवडे
आत्माने शोभावनारा छे; रत्नत्रय तेमनो शणगार छे; अहो, आवा मुनिओने देखतां
रत्नत्रयधर्मना बहुमानथी तेमना चरणोमां शिर नमी पडे छे.
कांई नथी के धर्मीनुं शरीर काळुं–कुबडुं न ज होय. कोईनुं शरीर काळुं–कुबडुं पण होय,
अवाज पण चोख्खो न नीकळतो होय,–तेथी शुं? अंदर तो देहथी भिन्न ज्ञानशरीरीपणे
धर्मात्मा पोताने अनुभवे छे. समंतभद्रस्वामी रत्नकरंड–श्रावकाचारनी २८ मी गाथामां
कहे छे के चांडालना शरीरमां रहेलो सम्यग्द्रष्टिआत्मा देव समान शोभे छे.–राखथी
ढंकायेल अग्निनी चीनगारी माफक देहनी अंदर सम्यक्त्वरूप चैतन्यचीनगारीथी ते
आत्मा शोभे छे, ते प्रशंसनीय छे.–
निर्विचिकित्सा–अंग छे. (आ निर्विचिकित्सा अंग माटे उदायनराजानुं द्रष्टांत शास्त्रोमां
प्रसिद्ध छे; ते ‘सम्यक्त्व–कथा’ वगेरेमां जोई लेवुं.)
ज शोभा छे, कांई पुण्यथी शोभा नथी. एक तिर्यंंच–कूतरुं पण जो सम्यग्द्रष्टि होय तो
शोभा छे, ने मिथ्याद्रष्टि मोटो देव होय तोपण शोभतो नथी. कोई धर्मी ओछा
पुण्योदयने कारणे निर्धन–कदरूप होय, ने पोते धनवान–रूपवान होय तो ते कारणे धर्मी
बीजा बीजा साधर्मीथी पोतानी अधिकता मानता नथी ने सामानो