Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 32 of 45

background image
मागशर: २४९८ आत्मधर्म : २९:
कुमार्गने माननारा जीवो घणा होय ने साचा मार्गने जाणनारा जीवो तो थोडा
ज होय, –पण तेथी धर्मी मुंझाय नहीं के क्यो मार्ग साचो हशे! अरे, हुं एकलो होउं
तोपण मारा हितनो जे मार्ग में जाण्यो छे ते ज परम सत्य छे, ने एवो हितमार्ग
बतावनार वीतरागी देव–गुरु ज सत्य छे; स्वानुभवथी मारुं आत्मतत्त्व में जाणी लीधुं
छे, तेनाथी विरुद्ध जे कोई मान्यता होय ते बधी खोटी छे; आम निःशंकपणे धर्मीए
कुमार्गनी मान्यताने असंख्यप्रदेशेथी वोसरावी दीधी छे. ते शुद्धद्रष्टिवंत जीव
कोई भयथी, आशाथी, स्नेहथी के लोभथी कुदेवादिने प्रणाम–विनय करतो नथी.
अरे जीव! तने आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं, आवा सत्य जैनधर्मनो योग मळ्‌यो, तो
हवे आ अवसरमां तारी विवेकबुद्धिथी साचा–खोटानी परीक्षा करीने निर्णय कर;
आत्माने परम हितकर एवा सर्वज्ञभगवानना मार्गनुं स्वरूप समजीने तेनुं सेवन कर,
ने कुमार्गना सेवनरूप मूढताने छोड. अरिहंत भगवाननो मार्ग जेणे जाण्यो ते जीव
जगतमां क्यांय मुंझाय नहीं. भगवानना मार्गने निःशंकपणे सेवतो थको ते मोक्षने
साधे. आवुं सम्यग्द्रष्टिनुं अमूढद्रष्टित्व–अंग छे. (आ अमूढद्रष्टिअंगना पालनमां
रेवती राणीनुं उदाहरण शास्त्रोमां प्रसिद्ध छे, ते ‘सम्यक्त्व–कथा’ वगेरे पुस्तकमांथी
जोई लेवुं.) आ रीते सम्यक्त्वना चोथा अंगनुं वर्णन कर्युं.
• • •
५. उपगूहन (उपबृंहण) अंगनुं वर्णन

पोताना गुणोनी प्रशंसा न करे ने बीजानी निंदा न करे, साधर्मीमां कोई दोष
लागी गयो होय तो तेने ढांके ने ते दोष दूर करवा प्रयत्न करे, तथा गुणनी वृद्धि थाय–
धर्मनी वृद्धि थाय एवा उपाय करे, –आवो भाव तो सम्यग्द्रष्टिनुं उपगूहन अथवा
उपबृंहण अंग छे.
धर्मात्माने एवी मार्दवभावना एटले के निर्मानता होय छे के, पोताना गुण
जगतमां प्रसिद्ध थाय ने पूजाय एवी भावना तेने होती नथी, तथा कोई साधर्मीना
दोष प्रसिद्ध करीने तेने हलको पाडवानी भावना होती नथी; पण धर्म केम वधे, गुणनी
शुद्धि केम वधे तेवी भावना होय छे. कोई अज्ञानी के अशक्त जनो द्वारा