Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४९८ आत्मधर्म : ३३:
उत्तेजन आपवानो हेतु नथी पण तिरस्कारथी ते जीव निरूत्साहित न थई जाय ने
बहारमां धर्मनी निंदा न थाय–ते हेतु छे; तथा गुणनी प्रीतिवडे शुद्धतानी वृद्धिनो हेतु
छे; आवुं उपगूहन तथा उपबृंहण–अंग छे. आ अंगना पालन माटे जिनेन्द्रभक्त एक
शेठनी कथा प्रसिद्ध छे, ते ‘सम्यक्त्व–कथा’ वगेरेमांथी जोई लेवी. आ रीते सम्यक्त्वना
पांचमां गुणनुं वर्णन कर्युं.
(विशेष आवता अंके)
• सन्तन वत •
सन्तो कहे छे: भाई! तारे अत्यारे आत्मानो
आनंद कमावानो अवसर आव्यो छे तेने तुं चुकीश नहि.
आचार्यदेव कहे छे के स्वानुभवथी हुं जे शुद्धात्मा
देखाडुं छुं तेमां संदेह कर्यां वगर तारा स्वानुभवथी तुं
प्रमाण करजे!
अनाकुळ स्वरूपनुं ध्यान अनाकुळ परिणति वडे
ज थाय छे; ते ध्यानमां ज आनंद स्फुरे छे.
विकल्प तो आकुळता छे, आकुळतामां आनंदनी
स्फुरणा केम थाय?
आत्मा जडतो नथी–एम कोई कहे, तो तेने कहे
छे के भाई! ज्यां आत्मा छे त्यां तुं गोततो नथी पछी
क्यांथी जडे? अंतर्मुख थईने ज्ञानस्वभावमां शोध तो
जरूर आत्मा जडशे. परभावमां शोध्ये ते नहि मळे.