एवी कोई वस्तु नथी के जेनी उपमाथी सिद्धपद बतावाय. सिद्धगति अनुपम
छे...अद्भुत एनो महिमा छे–जे साधकने स्वानुभवगम्य थाय छे. जे सिद्धगतिने
कोई रागनी–पुण्यनी उपमा पण नथी आपी शकाती, तो ते सिद्धगति रागथी के पुण्यथी
केम पमाय? ए तो स्वानुभूतिथी ज ओळखायने स्वानुभूतिवडे ज पमाय–एवी
अद्भुत अनुपम छे. संसारना बधा भावोथी एनी जात ज जुदी छे. अहो! आवा
सिद्धभगवंतो! मारा आत्मामां पधार्या छे.
द्रव्यस्तुतिवडे आत्मामां सिद्धप्रभुने स्थाप्या–हवे सिद्धदशा थये ज छूटको. अत्यारे भले
साक्षात् सिद्धदशा न होय, पण निर्विकल्पअनुभूतिना बळे स्वभावनी सन्मुख थईने जे
भावश्रुतनी धारा ऊपडी ते हवे अप्रतिहतपणे वच्चे भंग पड्या वगर सिद्धपद लेवानी
ज छे.–आवी निःशंकता सहित, अपूर्व मंगलाचरण करीने समयसार शरू थाय छे.
समयसार कहेवाय छे. माटे हे श्रोता! तुं रागनुं के विकल्पनुं के शब्दोनुं लक्ष राखीने
सांभळीश नहीं, पण कहेवाना वाच्यरूप जे शुद्धात्मा छे तेमां ज लक्षने एकाग्र करजे;
तेमां लक्षने एकाग्र करतां ज तारा मोहनो नाश थई जशे. आ समयसारना कथन काळे
अमारुं घोलन अंदर शुद्धात्मामां छे तेना बळे अमारो अस्थिरतानो मोह पण छूटतो ज
जाय छे, ने तुं पण श्रवणना काळमां तारा ज्ञानमां शुद्धात्मानुं घोलन करजे–जेथी तारा
मोहनो पण जरूर नाश थशे, ने सम्यग्दर्शनादि विशुद्धता थशे. अंतरमां ज्ञानधाराना
घोलनथी परम आनंद पमाय छे ने मोह टळे छे. आ रीते भावस्तुति सहित
सांभळनारा श्रोताओने श्रीगुरु आ समयसार संभळावे छे.
समयसारमां कहीश. आ रीते देव तरीके केवळीभगवाननी साक्षी, गुरु तरीके श्रुत