Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ३६: आत्मधर्म २४९८: मागशर
चैतन्यप्रकाशथी झगझगतुं सुप्रभात
(दीवाळी प्रवचन: समयसारनाटक पृ: ३६१)

आत्मानी अनुभूतिवडे साध्य एवुं जे केवळज्ञान, ते एकरूप चमकती
चैतन्यज्योत छे. मनुष्यदेहरूपी मंदिरमां बिराजमान भगवान आत्मा परम शांत
चैतन्यज्योतपणे प्रकाशे छे. आवी केवळज्ञानज्योतिनो साधक धर्मात्मा शुभ–अशुभ
समस्त क्रियाओथी उदास छे. शुभाशुभपरिणति ते तो ज्ञानथी विपरीत चाल छे, तेनुं
फळ संसार छे. ज्ञानचेतनानी चाल तो शुभाशुभ रागथी अत्यंत जुदी छे; एवी चेतना
ज साधक थईने अंतरमां एकाग्र थईने केवळज्ञानने साधे छे. केवळज्ञानज्योतिवडे
आखुं जगत झगमगे छे–आखा जगतने ते जाणे छे; आवी ज्ञानज्योतिरूप महान
सुप्रभात मंगलरूप छे.
केवळज्ञाननी साथे अनंती शांति, अनंत आनंद, एवा अनंत निजगुण उल्लसे
छे. साधकने प्रथम सम्यग्दर्शन परिणतिमां पण ज्ञान–आनंद–सुख वगेरे अनंतगुणथी
भरेलो आखो चैतन्यसमुद्र उल्लसे छे. सम्यग्दर्शनपरिणति पण रागक्रिया वगरनी छे.
एकली श्रद्धापर्याय नहि पण अनंतागुणो सम्यक्भावपणे एकसाथे प्रगटे छे,
चैतन्यसमुद्र आखो अनुभूतिमां आवे छे. अनुभूतिमां जे आत्मा आव्यो तेने ज
साधता–साधता, तेमां ज एकाग्र थतां–थतां अचिंत्य आनंदथी भरेलुं केवळज्ञानप्रभात
झगझगाट करतुं प्रगटे छे, ज्ञायकतेजथी भरपूर ते सुप्रभात सदाकाळ जयवंत रहे छे.

‘आत्मधर्म’ मासिक :
आत्महितनी प्रेरणा आपतुं, भारतनुं आ अजोड
अध्यात्म–मासिक दर पचीसमी तारीखे प्रगट थाय छे. वार्षिक लवाजम चार रूपिया.
अढी हजार उपरांत ग्राहकोना लवाजम आवी गया छे; बीजाओए पण तरत ग्राहक
थई जवुं उत्तम छे जेथी बधा अंको मळी शके. ग्राहकोने भेट आपवा माटे ३०० पानानुं
एक सुंदर पुस्तक तैयार थई रह्युं छे. एकादमासमां तैयार थशे. पुस्तक भेट आपती
वखते जेटला ग्राहको थयेला हशे तेमने आ पुस्तक भेट मळशे. आत्मधर्मनो अंक पहेली
तारीख सुधीमां न मळे तो तरत कार्यालयने जणाववाथी बीजो अंक मोकलाय छे. दशेक
ग्राहकोना अंक पूरुं सरनामुं छतां पाछा आवेल छे, तो जेमने अंक न मळ्‌यो होय तेओ
फरी
सरनामुं लखे. आत्मधर्म कार्यालय सोनगढ (सौराष्ट्र)