: पोष : २४९८ आत्मधर्म : ७ :
* ज्ञान स्वयं आत्माने साक्षात् जाणे छे, केम के ते आत्मानो अभिन्न स्वभाव
छे.
हे जीव! आवा ज्ञानस्वभावी आत्मानी तुं भावना कर.
ते भावना वडे तने मोक्षना परम आनंदनो अनुभव थशे.
स्वमां तन्मय थया वगर ज्ञान स्वने जाणी शके नहीं.
परमां तन्मय थाय तो ज्ञान परने जाणी शके नहीं.
आत्मा एवी स्ववस्तु छे के तेमां तन्मय थईने ज ज्ञान तेने जाणे; तेनाथी जुदुं
रहीने ज्ञान तेने जाणी शके नहीं. राग तो स्वभावथी जुदो छे तेथी ते आत्मस्वभावने
जाणी शकतो नथी.
राग तो ज्ञानथी भिन्न होवाथी, तेनाथी जुदुं रहीने ज ज्ञान तेने जाणे, पण जो
तेमां तन्मय थाय तो ते रागने जाणी शके नहीं.
वाह! आत्मा अने रागनुं केवुं भेदज्ञान छे!
ते भेदज्ञान, आत्मामां तो एकता करे छे ने रागने जुदो राखे छे,–ए रीते
बंनेने जुदा करी नांखे छे, ने रागथी भिन्न ज्ञानानंदमय आत्माने साधे छे–अनुभवे
छे. ज्ञान स्वने तो तन्मय थईने जाणे छे, ने परने तेनाथी भिन्न रहीने जाणे छे,–एवो
तेनो स्वभाव छे,–माटे स्वआत्मानुं ज्ञान ते निश्चय छे; रागादि परनुं ज्ञान ते व्यवहार
छे.
निश्चय वगर व्यवहार होय नहीं, एटले आत्माने जाण्या वगर परनुं साचुं
ज्ञान थाय नहीं; स्वपूर्वक परनुं साचुं ज्ञान थाय छे.
साचुं ज्ञान जाणे छे के मारुं स्व ते आत्मा छे; रागादि ते कांई मारुं स्व नथी,
माराथी तो ते पर छे–जुदा छे.
–आवा भेदज्ञान वडे धर्मीजीव आनंदथी मोक्षने साधे छे.
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सिद्धनगर छे सुखीनगर आनंदमय छे आत्मनगर एकत्व छे मुज आत्मवैभव,
महा सुख त्यां देहवगर. तेमां वस, भवसार तर! फरी हवे कदी करुं न भव.