Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : पोष : २४९८
आनंदरूप मोक्षफळ पमाय छे. ज्ञानभावना ते मार्ग, अने मोक्ष ते मार्गनुं फळ,
ए बंने ज्ञानमां ज समाय छे.
* चोथा गुणस्थाने भेदज्ञान थतां ज्ञानभावना शरू थई गई छे; त्यां जे ज्ञान–
परिणमन छे ते पोताना स्वरूपमां ज निश्चल छे, ते राग साथे एक थतुं नथी,
जुदुं ज रहे छे. ए ज ज्ञानधारा वधती वधती ज्यारे पूर्ण थाय छे त्यारे
अविनाशी आनंदमय मोक्षफळ प्रगटे छे. माटे मोक्षेच्छु जीवे ज्ञानभावना
निरंतर भाववी.
* ज्ञानभावनामां धर्मीने आनंदनुं वेदन छे, ते आनंदमां उपसर्गनो अभाव
छे. जेम सिद्धने मोह के उपसर्ग नथी, तेम धर्मीने पण शुद्धस्वरूपना
अनुभवरूप ज्ञान–भावनामां मोह नथी, उपसर्ग नथी. वाह, जुओ! आ
साधकनी ज्ञानभावना! मोह के उपसर्ग ते ज्ञानभावनाथी बहार छे.
* आवी अपूर्व ज्ञानभावना भावनार साधक कहे छे के अहो! केवळज्ञान
थाय त्यारनी तो शी वात!–अत्यारे साधकदशामां पण अमारुं ज्ञान सीधुं–
स्वसंवेदन प्रत्यक्षपूर्वक अमारा आत्माने स्पष्ट जाणे ज छे. हमणां अमारुं
ज्ञान, भले मतिश्रुतरूप छे तोपण आत्माना स्वभावमां एकतापणे
परिणमतुं थकुं आत्माने चोक्कस जाणे छे. ज्ञान सीधुं आत्माने जाणे छे
एटले वच्चे कोई विकल्पने–रागने–इंद्रियना अवलंबनने ते स्वीकारतुं
नथी. ज्ञान पोते आत्मानुं शुद्ध स्वरूप ज छे, ते पोते पोताने न जाणे ए
केम बने? ज्ञान आत्माथी कांई जुदुं नथी के ते आत्माने न जाणे.
* अंतरमां ज्ञानभावना वडे, ज्ञानने सीधुं आत्मामां एकाग्र करीने,
आत्माने साक्षात् जाणवो ते ज लाखो वातनो सार छे, ते ज मोक्षनुं कारण
छे; ते ज स्वभाव छे; अहा, कोई अचिंत्य ज्ञानस्वभाव छे के जे आत्मामां
तन्मय रहीने आत्माने साक्षात् जाणे छे; आत्माने जाणनारुं आ ज्ञान
सदाय आनंदमय अमृतनां भोजन करनारुं छे, पोते सहज परम आनंदरूप
छे. तेमां कोई रागादिनो प्रवेश नथी.
* राग आत्माने जाणी शकतो नथी, केम के ते आत्माथी भिन्न छे.