Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : पोष : २४९८
स्वयं शोभतुं
अद्भुत आत्मरत्न
[मागशर वद ११] [नियमसार गा. १८०]
पोते पोताथी ज जे शोभित छे तेने बीजा अलंकारनी शी जरूर छे?
जेम सिद्धभगवंतो पोताना केवळज्ञानादि निजगुणरूप अवयवोथी स्वयं
अलंकृत छे, निजगुणोथी आत्मा स्वयं शोभे छे, त्यां बीजा कोई
अलंकारनी तेमने जरूर नथी.
बापु! तारो आत्मा पण निजगुणोथी स्वयं सुशोभित छे, तारी शोभा माटे
बहारना कोई अलंकारनी जरूर नथी.
संसारना रागी जीवोने शरीरना अवयवोनी शोभाथी संतोष नथी तेथी
शोभा माटे बीजा अलंकारोथी शरीरने शणगारे छे. पण
सम्यक्त्वादि दिव्यरत्नोथी स्वयं शोभित आत्माने बीजा कोई
अलंकारनी जरूर नथी.
जेम स्वयं झगझगता उत्तम सुशोभित रत्नने, बीजा रत्नवडे शणगारवानी
जरूर पडती नथी, स्वयं प्रकाशथी ज ते शोभे छे, तेम सम्यक्त्वादि
अनंत गुणना प्रकाश वडे स्वयं शोभता उत्तम आत्मरत्नने
बहारनी कोई चीजवडे शोभा नथी. सर्वज्ञस्वभावी,
आनंदस्वभावी हुं पोते, मारा स्वभावनी मोटप अने शोभा पासे
जगतना कोई पदार्थनी के पुण्यनी रागनी कांई ज महत्ता नथी.
अरे, आत्मा कोने कहेवाय? एनी अचिंत्य किंमतनी शी वात? जेनो
स्वीकार करतां ज शांति थाय, आनंद थाय, सुख थाय, बधा
समाधान थई जाय, अनंता गुण एक साथे निर्मळपणे खीलीने
आत्मा शोभी ऊठे छे,–जेमां कषायनुं के दुःखनुं नामनिशान नथी.
आवुं अद्भुत आत्मतत्त्व छे.
–आवुं अद्भुत आत्मरत्न हुं ज छुं–एम हे जीव तुं देख.