Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९८ आत्मधर्म : ९ :
मोक्षार्थी जीवे स्वकार्यने
कई रीते साधवुं?
[नियमसार गाथा १५५ थी १५८ ना प्रवचनोमांथी मागशर सुद १ थी ५]
हे भव्य! तारा सहज तत्त्वनी आराधनामां तुं
अछिन्न रहेजे...आनंदथी तेने आराधजे. जगतना भयथी तुं
तारी आराधनामांथी डगीश मा. आ जैनशासनमां कहेला
परम गंभीर चैतन्यतत्त्वने कोईक विरला ज अनुभवे छे.
माटे लौकिकजीवोनो संग छोडीने तुं एकलो तारा स्वकार्यमां
तत्पर रहेजे ने अंतरमां तारा ज्ञाननिधानने भोगवजे.
जगत तारी प्रशंसा करे के निंदा करे–तेनी सामे जोवा ऊभो न
रहीश. परम आनंदभावथी उल्लसता तारा तत्त्वमां सन्मुख
थईने तेने ज साधजे. आत्माने साधवामां लोकनो भय
राखीश नहीं.
हे भव्य! शुद्धनिश्चयस्वरूप परमात्मतत्त्वनुं ध्यान महान आनंदरूप छे, ने
आवा परमात्मध्यानने ज जिनभगवाने मोक्ष माटेनी आवश्यकक्रिया कही छे; मोक्षने
माटे आवा उत्तम स्वकार्यने निरंतर साधवुं.–कई रीते साधवुं? ते कहे छे.
प्रथम तो स्वभाव अने परभावनी भिन्नताना अभ्यासरूप भेदज्ञानवडे
मोक्षना कारणरूप स्वभावक्रियाने, सत्क्रियाने बराबर स्पष्ट ओळखवी. रागथी पार
एवा शुद्धभावरूप क्रिया ते ज मोक्षना कारणरूप क्रिया छे, एटले परमात्मतत्त्वमां
परिणतिनी एकाग्रता ते ज मोक्षनी सत् क्रिया छे; बीजी कोई शुभाशुभ क्रियाओ मोक्षनुं
कारण नथी.–आम बराबर जाणीने मुमुक्षुए पोताना एकत्वमां रहीने स्वकार्यने
साधवुं. आवी साधना चोथा गुणस्थानथी शरू थाय छे.
आनंदधाम एवा स्वतत्त्वने साधवामां मशगुल मुनिओने तो लोकोना संगनी
आसक्ति छ्रूटी गई छे; ने चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने पण सर्वे बाह्यसंगनी प्रीति
छूटीने, पोताना स्वतत्त्वनो ज प्रेम छे, ने तेने ज साधवामां ते तत्पर छे.