Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९८ आत्मधर्म : ११ :
आ जगतमां शाश्वत परमसुख देनारुं पोतानुं परम चैतन्यतत्त्व ज छे; एनाथी
बहार जेटला प्रशस्त–अप्रशस्त विकल्पो छे ते तो बधाय संसारदुःखनुं ज मूळ छे. ते
बाह्यभावोथी के लोकसंगथी स्वप्नेय सुख मळे तेम नथी. अनेक प्रकारनां विचित्र जीवो
आ लोकमां छे तेमनी साथे वचनविवाद करवा जेवुं नथी. महा भाग्ये जिनमार्ग
पामीने, तेमां कहेला परमात्मतत्त्वने पोते एकला एकला पोताना अंतरमां साधी लेवा
जेवुं छे. जे तत्त्वमां जतां शांतिनुं वेदन थाय एवुं तो एक निजतत्त्व ज छे–जे सदाय
महाआनंद देनारुं छे. हे जीव! आवा तत्त्वमां ऊंडो ऊतरीने तेने ज तुं साध...तेने ज
अनुभव. लोकनी कोई कल्पनाजाळनो तेमां प्रवेश नथी.
द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूप प्रत्येक वस्तु भगवान सर्वज्ञदेवना ज शासनमां
कही छे, बीजा कोई यथार्थ वस्तुस्वरूप जाणी शक्या नथी. माटे हे भाई!
महाभाग्यथी सर्वज्ञनो मार्ग पामीने तुं तारा स्वाधीन द्रव्य–गुण–पर्यायने
जाणीने, जगतथी निस्पृहपणे तारामां एकलो आत्माना आनंदने साधजे.
दुःखपर्याय छोडीने सुखपर्यायरूपे थवुं छे, ते सुखरूपे कोण थशे? तुं पोते द्रव्य–
गुणना सामर्थ्यथी ते सुखपर्यायरूपे थईश; द्रव्य–गुणपणे त्रिकाळ टकीने आत्मा
पोते अंतर्मुखपणे सुख–पर्यायरूप परिणमे छे. द्रव्य–गुण–पर्यायने न माने तो
आवुं कार्य बनी शकतुं नथी. जगतना जीवो तो आवा तत्त्वने न ओळखे,
ज्ञानीनी अंतरदशाने न ओळखे एटले ते तो अज्ञानने लीधे सत्नी निदा करे,
आरोप मुके, ईर्षा करे, पण साधक तेनी दरकार करतो नथी, ते तो जाणे छे के
अरे, सुख माटे मारे जगत साथे क्यां प्रयोजन छे? मारा सुख माटे मारा
अंतरना द्रव्य–गुणस्वभाव साथे ज मारे प्रयोजन छे; माटे निजस्वभावना
आश्रये मौनपणे हुं मारा कार्यने साधी ज रह्यो छुं, एटले के मारा एकत्वनुं सुख
मारामां मने अनुभवाई ज रह्युं छे, मारुं निजतत्त्व पोते ज शाश्वत सुखदायक छे,
तेने हुं अवलंबी रह्यो छुं, पछी बीजा निंदा करे तो करो, तेनो मने भय नथी,
प्रशंसा करे तो तेनी पण स्पृहा नथी.
अहा, जुओ तो खरा आ जैनशासन! जैनशासनमां आवो निरपेक्ष,
एकला आत्माने ज अवलंबनारो मोक्षमार्ग छे. आवुं जैनशासन पामीने पोते
पोताना स्वकार्यने साधी लेवुं, बीजा जीवो साथे वादविवादमां न पडवुं. जगत तो
विचित्र जीवोनो समूह छे, तेमां बधाय जीवो आवुं गंभीर चैतन्यतत्त्व समजी
जाय–ए तो असंभव छे, कोईक विरला जीवो ज चैतन्यतत्त्वने अनुभवे छे. माटे
तुं लौकिकजीवोनो संग छोडीने