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आवे छे के एक बाळक माटे बे स्त्रीनो झगडो थयो–न्यायाधीशे बाळकना बे कटका
करीने बंनेने एकेक वहेंची देवा हुकम कर्यो. ते सांभळतां ज साची मातानी राड फाटी
गई; पुत्रने बचाववा तेणे कह्युं–भले आखेआखो पुत्र एने आपी दो, मारे एना कटका
नथी करवा. द्रष्टांतमांथी एटलुं लेवानुं छे के साची माता पुत्रनुं दुःख जोई शकती नथी,
तेने कुदरती वात्सल्य ऊभराय छे. प्रद्युम्नकुमार १६ वर्षे घरे आव्यो त्यारे
रुक्मिणीमाताना हैयामां वात्सल्यनी धारा ऊभराणी. तेम खरा प्रसंगे साधर्मीनो प्रेम
छानो न रहे. सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्द्रष्टि प्रत्ये अंतरनो प्रेम होय; एने देखतां, एनी वात
सांभळतां प्रेम आवे. धर्मनो प्रेम होय तेने धर्मी प्रत्ये प्रेम होय ज; केमके धर्म अने
धर्मी कांई जुदा नथी.
कारण तो अंदरमां परद्रव्यथी भिन्न पोताना आत्मानी रुचि ने ज्ञान करवुं ते छे.
सम्यग्दर्शन वगरना शुभभावथी मोक्षमार्ग थतो नथी. सम्यग्दर्शन पछी पण जे राग छे
ते कांई मोक्षमार्ग नथी, मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शनादि वीतरागभाव ज छे. ज्यां रागनी
भूमिका छे त्यां आवा वात्सल्यादि भावो जरूर आवे छे. (आ वात्सल्यअंगना
पालनमां ७०० मुनिवरोनी रक्षा करनार विष्णुमुनिराजनी कथा प्रसिद्ध छे, ते
‘सम्यक्त्व–कथा’ वगेरेमां जोई लेवी.) आ रीते सातमा वात्सल्यअंगनुं वर्णन पूरुं
थयुं.
जगतमां केम प्रसिद्ध थाय ने जगतना जीवो आवो धर्म केम पामे–एवो प्रभावनानो
भाव धर्मीने होय छे. ते पोतानी सर्वशक्तिथी, ज्ञान–विद्या–वैभव–तन–मन–धन–दान–
शील–तप वगेरेथी धर्मप्रभावना करे छे. कोई विशेष शास्त्र द्वारा, तीर्थद्वारा, उत्तम
जिनालय द्वारा तथा अनेक महोत्सव द्वारा पण प्रभावना करे छे; अत्यारे तो जीवोने
साचुं