Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 22 of 57

background image
: पोष : २४९८ आत्मधर्म : १९ :
जिज्ञासा थाय छे
के जीव केवो छे?
आचार्य महाराज सात बोल द्वारा जीवनुं अलौकिक स्वरूप
समजावीने सुंदर स्वसमयपणुं केम थाय–ते बतावे छे
[समयसारनी बीजी गाथाना प्रवचनमांथी: वीर सं. २४९८ मागशर सुद १ थी ४]
मंगलाचरणरूपे सिद्धभगवंतोने आत्मामां स्थापीने, एटले के सिद्ध जेवुं साध्य–
रूप जे शुद्धआत्मस्वरूप तेना तरफ ज्ञानने एकाग्र करीने, समयसारमां सौथी पहेलांं
आचार्यदेव ‘समय’ एटले जीव नामनी वस्तु, तेनुं स्वरूप ओळखावे छे.
‘समय’ तेने कहेवाय के जे एकसाथे जाणवानी अने परिणमवानी एवी बंने
क्रियारूप होय. जीव–वस्तु जाणे छे अने परिणमे छे–तेथी ते समय छे. जीवो अनंता छे;
ते बधाय जीवोमां जाणवानी अने परिणमवानी बंने क्रिया एक साथे सदाय होय छे.
हवे ते क्रिया धर्मीने केवी होय छे ने अज्ञानीने केवी होय छे–ते बंने प्रकार पण आ
बीजी गाथामां ओळखाव्या छे. टीकामां प्रथम सात बोलथी जीवनुं अलौकिक स्वरूप
बतावीने, पछी तेनी अवस्थाना बे प्रकार (स्वसमयपणुं ने परसमयपणुं) क्या प्रकारे
छे ते समजाव्युं छे.
धर्मीनो आत्मा पोतानी निर्मळ ज्ञानपर्यायमां स्थित छे
परथी भिन्न आत्मानी स्वानुभूतिवडे जे आत्मा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे
परिणम्यो छे, ते दर्शन–ज्ञान–चारित्रपर्यायमां स्थित आत्मा स्वसमय छे. आत्मा पोते
परिणमीने पोतानी पर्यायमां आव्यो छे तेथी ते दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां स्थित छे. आवी
पर्यायरूपे परिणमेलो आत्मा ते स्वसमय छे; ते धर्मात्मा छे.
स्वसन्मुख वळेली निर्मळपर्यायपणे जे परिणम्यो ते आत्मा स्वसमय छे.
पर साथे एकत्वबुद्धिथी मिथ्यात्वभावरूपे जे परिणम्यो ते परसमय छे.