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कहीने अनंतधर्म तेमां समाड्या; अहीं गुण–पर्यायपणुं कहे छे. गुणो अने पर्यायो ते
बंने, आत्मानो स्वभाव ज छे. क्रमे थती पर्यायो ते पण आत्मानो स्वभाव ज छे;
पोताना स्वभावथी ज ते क्रमवर्ती पर्यायरूपे परिणमे छे, ने अनंत गुणरूपे कायम रहे
छे. एक वस्तुमां द्रव्य–गुण–पर्याय एवा भेदनो विचार आत्मानुं स्वरूप नक्की करवा
माटे होय छे, पण आत्मानी साक्षात् अनुभूतिमां द्रव्य–गुण–पर्याय ए त्रणनो भेद
नथी, एटले विकल्प नथी; त्यां तो पोतानी आनंदमय चैतन्यपरिणतिरूप परिणमीने
तेमां आत्मा अभेदपणे ठर्यो छे. ते स्वसमय छे.
स्थित थाय छे, अने तेने स्वसमय कहेवामां आवे छे. आवुं स्वसमयपणुं ते सुंदर
छे, तेमां एकत्वपणे आत्मा शोभे छे. आत्मामां पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायोनी,
सामान्य–विशेष भावोनी अचिंत्य गंभीरता भरी छे. तेनी ओळखाण करवानी
आ वात छे.
जाणतां ते जडरूप थई जतो नथी, रागने जाणतां रागरूप थई जाय एवो नथी, पण
जडने के रागने जाणवा छतां चैतन्यभाव पोते तो एक चैतन्यभावरूप ज रहे छे.
अनेक पदार्थोने जाणवा छतां चेतना पोताना एकत्वने छोडती नथी. आवा स्व–
परप्रकाशक चैतन्यसामर्थ्यवाळो पदार्थ ते जीव छे.
घणा पदार्थोने जाणे छतां पोते चेतनास्वरूपमां ज तन्मय रहेतो होवाथी आत्मा
एकरूप ज छे, अनेकने जाणतां पोते अनेकरूप थई जतो नथी. सर्वने जाणे एवा