Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : पोष : २४९८
सामर्थ्यने लीधे सर्वज्ञ कह्या, ते सर्वज्ञपणुं आत्मा छे, आत्मा पोते निश्चयथी तेवी
सर्वज्ञपर्यायरूपे थयो छे; ते पण जीवनो स्वभाव छे. अनंत स्वभावोथी गंभीर एवुं
जीवद्रव्य छे. हुं ज एवी ताकातवाळो छुं के जेनुं ज्ञान स्व–परने जाणवारूप परिणमे छे,
अने छतां पोताना एकत्वने छोडतो नथी. आवो विश्वप्रकाशी अजोड चैतन्यदीवडो जीव
छे. पर्यायने–रागने–जडने जाणवुं ते कांई दोष नथी, तेने जाणतां कांई चैतन्यपर्याय
मेली थई जती नथी. सर्वने जाणवुं ए तो चैतन्यनी निर्मळतानुं सामर्थ्य छे, सहज
स्वरूप छे.–आवा तारा जीवने तुं जाण!
६. अन्य द्रव्यथ असधरण अव चतन्यस्वभवरूप जीव छ.
जगतमां जीव सिवायना बीजा अजीव पदार्थो पण छे–के जेओ चेतना वगरनां
छे; ते बधा पदार्थोथी जीवनुं अत्यंत भिन्नपणुं जीवना चेतनालक्षणवडे नक्की थाय छे.
चैतन्य ते जीवनो असाधारण स्वभाव छे. बीजा पांचद्रव्योनां जे असाधारण–विशेष–
गुणो ते जीवमां नथी, ने जीवनो असाधारण चेतनागुण कोई बीजामां नथी; आ रीते
जीव बीजा पांचे प्रकारनां अजीवद्रव्योथी अत्यंत जुदो छे. परथी तेने अत्यंत भिन्नपणुं,
ने पोताना ज्ञानस्वभाव साथे एकपणुं छे. आवा स्वभावथी एकत्व–विभक्तपणे ते
शोभे छे. आवा असाधारण चैतन्यस्वरूप जीवने ओळखतां रागथी पण भिन्न
परिणमन थाय छे.
जीव सिवायनां द्रव्यो जगतमां छे खरा, जीव तेने जाणे छे पण खरो, पण ते
अन्य द्रव्यो जीवना अस्तित्वमां नथी. जीव पोताना ज्ञानादि स्वधर्मोना अस्तित्वमां ज
छे. आवा पोताना भिन्न अस्तित्वने ओळखीने भेदज्ञान करनार जीव स्वद्रव्यनी
सन्मुख सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायरूप परिणमे छे.
७. जीव चैतन्यस्वभावे टंकोत्कीर्ण छे.
आ एक आत्मा उपरांत बीजा अनंता जीव तेम ज अनंता अजीव पदार्थो
आ जगतमां रहेलां छे; एवा अनंता जीव–अजीव पदार्थोनी साथे एकक्षेत्रे रहेलो
होवा छतां जीव पोताना चैतन्यस्वरूपथी कदी छूटतो नथी, पोते चैतन्यपणे ज रहे
छे, चैतन्य मटीने जड कदी थतो नथी; माटे जीव सदा पोताना टंकोत्कीर्ण
चैतन्यस्वरूपमां रहेलो छे.