Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९८ आत्मधर्म : २५ :
पोतानुं आवुं स्वरूप भूलीने, अनादिकाळथी चारगतिना भयंकर दुःखोमां
भ्रमण कर्युं, छतां चैतन्यस्वभाव एवो ने एवो रह्यो छे, जीवना ज्ञान–
आनंदस्वभावनो एक्केय अंश ओछो थयो नथी, टंकोत्कीर्ण एवो ने एवो बिराजी रह्यो
छे. एकक्षेत्रे रहेवा छतां ते पर साथे भेळसेळ थयो नथी, तेमज पर्यायमां विकृति छतां
मूळ स्वभावनो नाश थयो नथी, स्वभाव अन्यथा थयो नथी. अहा, जीवनो स्वभाव
तो जुओ! आवा पोताना जीवस्वभावने ओळखवो ते ज खरूं करवा जेवुं छे. बाकी
संसारमां तो बीजुं बधुंय असार छे.
आ रीते, जे उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप सत् छे, जे चैतन्यज्योत छे, जे पोताना
अनंतधर्मोमां रहेलो छे, जे गुण–पर्यायवंत छे, जे स्व–परप्रकाशक छे, जे अन्य द्रव्योथी
भिन्न असाधारण चेतनागुणरूप छे, अने जे सदा पोताना स्वरूपमां टंकोत्कीर्ण रहेल छे,
–आवा विशेषणोवाळो जे जीवपदार्थ छे तेने ज
‘समय’ कहेवाय छे, केमके ते एकत्वपणे
जाणवुं अने परिणमवुं एवी बंने क्रिया एक साथे करे छे.
* * * * *
[पृ. १२मां सूचवेल लेखनो बीजो भाग पृ. २५ ने बदले २८ मां वांचशोजी]
स्वसमय अन परसमय : तम स्वसमयन सदरत
जीव एटले के ‘समय’ नामनो पदार्थ केवो छे ते सात बोलथी बताव्युं. दरेक
जीवमां जाणवानी अने परिणमवानी बंने क्रिया एक साथे थाय छे, पण तेमां बे प्रकार
छे : ज्ञानी पोतामां चैतन्यस्वरूप आत्माने ज स्वपणे जाणे छे अने स्वमां ज
एकत्वबुद्धिथी सम्यग्दर्शनादिरूप परिणमीने तेमां स्थिर थाय छे तेथी ते स्वसमय छे;
अने अज्ञानी स्वने भूलीने, परने एकत्वपणे जाणे छे तथा मोहादि परभावोमां
एकत्वपणे परिणमीने तेमां स्थिर थाय छे तेथी ते परसमय छे; आ रीते जीव नामना
समयने स्वसमय अने परसमय एवा बे प्रकार होय छे. ते ओळखीने स्वसमयपणुं
प्रगट करवुं ने परसमयपणुं छोडवुं; केमके स्वसमयरूप एकत्वपणे ज आत्मा शोभे छे,
तेमां ज आत्मानी सुंदरता छे, परसमयपणुं ते आत्माने शोभतुं नथी, तेमां तो
विसंवाद छे, बंधन छे.
जीवने स्वसमयपणुं क्यारे थाय? के ज्यारे जीवनुं स्वरूप ओळखीने स्व–
परनुं भेदज्ञान करे त्यारे जीव परथी भिन्न पोताना दर्शनज्ञानस्वभावमां
निश्चलपरिणतिरूपे