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आनंदस्वभावनो एक्केय अंश ओछो थयो नथी, टंकोत्कीर्ण एवो ने एवो बिराजी रह्यो
छे. एकक्षेत्रे रहेवा छतां ते पर साथे भेळसेळ थयो नथी, तेमज पर्यायमां विकृति छतां
मूळ स्वभावनो नाश थयो नथी, स्वभाव अन्यथा थयो नथी. अहा, जीवनो स्वभाव
तो जुओ! आवा पोताना जीवस्वभावने ओळखवो ते ज खरूं करवा जेवुं छे. बाकी
संसारमां तो बीजुं बधुंय असार छे.
भिन्न असाधारण चेतनागुणरूप छे, अने जे सदा पोताना स्वरूपमां टंकोत्कीर्ण रहेल छे,
–आवा विशेषणोवाळो जे जीवपदार्थ छे तेने ज
छे : ज्ञानी पोतामां चैतन्यस्वरूप आत्माने ज स्वपणे जाणे छे अने स्वमां ज
एकत्वबुद्धिथी सम्यग्दर्शनादिरूप परिणमीने तेमां स्थिर थाय छे तेथी ते स्वसमय छे;
अने अज्ञानी स्वने भूलीने, परने एकत्वपणे जाणे छे तथा मोहादि परभावोमां
एकत्वपणे परिणमीने तेमां स्थिर थाय छे तेथी ते परसमय छे; आ रीते जीव नामना
समयने स्वसमय अने परसमय एवा बे प्रकार होय छे. ते ओळखीने स्वसमयपणुं
प्रगट करवुं ने परसमयपणुं छोडवुं; केमके स्वसमयरूप एकत्वपणे ज आत्मा शोभे छे,
तेमां ज आत्मानी सुंदरता छे, परसमयपणुं ते आत्माने शोभतुं नथी, तेमां तो
विसंवाद छे, बंधन छे.
निश्चलपरिणतिरूपे