Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९८ आत्मधर्म : २९ :
मोटा निधान पामे; पछी ते परदेश छोडीने पोताना निजवतनमां रहीने एकलो
गुप्तपणे ते निधिने भोगवे छे; तेम सहज ज्ञानस्वरूप जीव पोताना स्वरूपने
भूलीने अनादिकाळथी संसारमां रखडतो दुःखी थयो; ते जीव, क्यारेक सहज
वैराग्यवंत थई श्रीगुरुनी परमभक्तिवडे, तेमणे जेवो परमस्वभाव कह्यो तेवो
लक्षगत करीने, पोताना सहज ज्ञाननिधिने पाम्यो, तेना सम्यक्त्वादि गुणनी
पवित्रतानो उदय थयो, ने अंदर निर्विकल्प श्रद्धा–ज्ञान–शांतिमां पोताना
परमआनंदमय ज्ञानानिधान पोतामां ज पाम्यो...भान थयुं के अहो! हुं तो आवा
परमशांत चैतन्यनिधाननो भंडार छुं, मारा आ निधिने श्रीगुरुप्रतापे में मारामां
देख्यो छे. –एम सहज परमतत्त्वज्ञानी थयेलो आ जीव पोताना सहज ज्ञाननिधिने
पोताना स्वरूपमां गुप्तपणे एकलो–एकलो भोगवे छे. गंभीर ऊंडा
चैतन्यनिधानना भोगवटामां मग्न ते जीव अज्ञानी–लौकिकजनोना संगने ध्यानमां
विघ्ननुं कारण समजीने छोडे छे.
अहो, मारा आत्माना परम गुणो निर्मळपणे उदित थया, अनंता गुणोनां
निधान निर्मळ पर्यायरूपे खीली उठ्या, आवा निधान पोतामां छे पछी जगत सामे शुं
जोवुं? ज्ञानीना अंतरमां चैतन्यना केवा निधान छे तेनी जगतने क्यां खबर छे?
जगतने पोताना निधाननी पण खबर नथी, ने ज्ञानीना निधानने ते ओळखतुं नथी.
अरे, जेने पोताना स्वरूपनी खबर नथी एवा अज्ञानी जीवोना संगनुं मारे शुं काम
छे? हुं तो जगतथी विरक्त थईने, सहज वैराग्य–संपत्तिवाळो थईने मारी परिणतिने
अंतरमां वाळीने मारा सहज ज्ञाननिधिने पाम्यो छुं. मारा श्रीगुरुए पण मने ए ज
बताव्युं हतुं के विकल्पथी पार थईने अंदर तारा ज्ञानस्वभावनी सन्मुख था. आ रीते
ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थवुं ते ज ज्ञानीधर्मात्मानी खरी सेवा छे. आवा ज्ञाननी श्रद्धा
वगर ज्ञानीनी ज्ञानचेतनाने ओळखाय नहीं एटले ज्ञानीनी खरी सेवा थाय नहीं.
ज्ञानीना ज्ञाननी ओळखाण वगर, एकला शरीरनी सेवा करे तेमां बहु तो शुभभाव
होय, पण तेनाथी ज्ञाननिधान न प्रगटे. ज्ञाननिधान तो अंदरमां जेवो ज्ञानीए
बताव्यो तेवो ज्ञानस्वरूप पोतानो आत्मा अनुभवमां ल्ये त्यारे ज प्रगटे छे. परमगुरु
पण एवा ज छे के जे अंदरमां ज्ञानपुंज–चैतन्यरसने सेववानुं बतावे छे. रागना रसथी
पार एकलो ज्ञानरसनो ढगलो ते आत्मा छे, तेनी सन्मुख थतां भान थयुं के अहो!
आवा अनंतगुणना निधानथी पूरो ज्ञानथी पूरो, आनंदथी पूरो, शांतिथी पूरो–एवो हुं
छुं. आवा चैतन्यनुं भान थतां तेमां ज रस रहे छे ने परना संगनो रस छूटी जाय छे,
रागनो रस ऊडी जाय छे, एकला